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धार दिए बैठे हैं .....

>> Friday, March 26, 2021

 


सूरज से अपनी चमक उधार लिए बैठे हैं 

ज़िन्दगी को वो अपनी ख़्वार किये  बैठे  हैं ।

हर बात  पे  सियासत होती  है  इस  कदर
फैसला हर गुनाह का ,सब खुद ही किये  बैठे हैं ।

बरगला रहे एक दूजे को ,खुद ही के झूठ से 
सब अपना अपना एक मंच लिए बैठे हैं  ।

फितरत है बोलना ,तोले बिना कुछ भी 
बिन पलड़े की अपनी तराज़ू लिए बैठे हैं 

हिमायत में किसी एक की इतना भी ना बोलो
अपनी ज़ुबाँ को बाकी भी ,धार दिए बैठे हैं । 

सिक्के के हमेशा ही होते हैं दो पहलू 
हर सिक्का अब हम तो हवा में लिए बैठे हैं ।



मैं प्रेम में हूँ ---

>> Monday, March 22, 2021


मैं आज - कल  
प्रेम में हूँ  ...
प्रेम चाहता है एकांत 
मैं भी एकांत में हूँ 
कर रही हूँ 
बेसब्री से इंतज़ार 
कब आओ तुम मेरे द्वार 
कब कहो कि 
चलो मेरे साथ 
और मैं चल पडूँ
हाथों में हाथ को थाम . 
मैंने कर ली हैं 
सब  तैयारियाँ
बाँध ली हैं सामान की 
अलग अलग पोटलियाँ 
जज़्बात और ख्वाहिशों को 
छोड़ दिया है 
क्योंकि  ये बढ़ा देती हैं  दुश्वारियाँ.
एकत्रित कर ली हैं 
 सारी स्मृतियाँ ,
हर तरह की 
मीठी  हों या फिर हों तल्ख़  
निरंतर अनंत की यात्रा पर 
आखिर न जाने लगे कितना वक़्त . 
ज़िन्दगी तो जी ली 
अब मरने की कला सीख रही हूँ 
आज कल मैं प्रेम में हूँ 
मृत्यु ! मैं तुझसे 
भरपूर  आलिंगन  चाहती हूँ . 




लहूलुहान संवेदनाएँ

>> Wednesday, March 17, 2021

 


ज़िन्दगी के बाग को



न मैंने काटा न छांटा 

और न ही लगाई

कंटीले तारों की बाड़

न ही की कभी 

इस बगिया की देख भाल ।

वक़्त की हवा ने 

यूँ ही छिटका दिए 

बीज संवेदनाओं के 

स्नेह धारा के अभाव में

अश्रु की नमी से ही 

निकल आये अंकुर उनमें ।

नन्हे नन्हे बूटे

रेगिस्तान सी ज़मीं पर

नागफ़नी से दिखते हैं ।

इन दरख्तों पर 

न ही कोई पत्ता है 

यहां तक कि इस पर 

कभी गुल भी नहीं खिलते हैं ।

सारी संवेदनाएं खुद के ही कांटों से 

हो जाती हैं लहू लुहान 

फिर किसी बीज के अंकुरण से

निकलती कोंपलें 

कर देती हैं आशा का संचार 

न जाने क्यों 

ऐसा ही होता है हर बार ।







क्या भूलूँ - क्या याद करूँ

>> Friday, March 12, 2021





क्या भूलूँ  क्या याद  करूँ ?
कब कब  क्या क्या  वादे थे
कुछ  पूरे  कुछ  आधे  थे
कैसे  उन पर  ऐतबार  करूँ
क्या भूलूँ   क्या  याद  करूँ ?



कुछ  नन्हे  नन्हें  सपने  थे


कुछ  तेरे थे कुछ  अपने  थे


कैसे  मन  को समझाऊं ? 


क्या भूलूं क्या याद करूँ ?



कुछ रोते - हंसते से पल थे 


जिसके अपने अपने हल थे 

कैसे दिल को मैं बहलाऊँ 


क्या भूलूँ  क्या  याद  करूँ  ?



कुछ रिश्ते थे कुछ नाते थे 


जिनके अपने अपने खाते थे 


कैसे उनका हिसाब  करूँ?


क्या भूलूँ  क्या याद करूँ ?











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तुम्हारा दम्भ

>> Sunday, March 7, 2021

 


ओ पुरुष,

नियंत्रक बने हर वक़्त 
चलाते हो अपनी 
और चाहते हो कि 
बस स्त्री केवल सुने 
कर देते हो उसे चुप 
कह कर कि 
तुम औरत हो 
औरत बन कर रहो
नहीं ज़रूरत है 
किसी भी सलाह की ।
और , स्त्री - 
रह जाती है 
मन मसोस कर 
हो जाती है मूक 
नहीं होता महत्त्व 
उसके होने या 
न होने का 
खुद से उलझती 
खुद से बतियाती 
करती रहती है 
रोज़मर्रा के काम 
मन में घुमड़ता रहता है 
कहीं न कहीं उसका 
अपना अपमान 

निकलती है बाहर 
घर के ही काम से 
या फिर 
मिल बैठती हैं 
कहीं कुछ महिलाएँ
खुद के मन की 
निकालने भड़ास 
सोचती हैं कुछ बतियाएँ 
एक दूसरे से 
मन की कह जाएँ
और इसी लिए 
जहाँ भी मिलती हैं 
दो या कुछ स्त्रियाँ 
हो जाती हैं मजबूर 
कुछ कह कर 
कुछ हँस कर 
करती हैं अवसाद दूर ।

और तुम ,
इस पर भी 
मज़ाक उड़ाते हो 
उनके गल्प पर 
चुटकुले बनाते हो 
और अपने दम्भ को
पोसते हुए
हो जाते हो मगन 
यही सोचते हुए कि
कितना सही हो तुम ! 



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