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बसंत नहीं आता

>> Monday, February 18, 2013





मेरे इस शहर में 
बसंत नहीं आता , 
न गमकती 
बयार चलती है 
और न ही 
महकते फूल 
खिलते हैं 


कंकरीट  के उद्यानों से
छनती हुई 
विषैली हवा 
घोट  देती है दम
हर शख्स  का । 
मेरे इस शहर में
बसंत नहीं आता ...


एक खौफ है जो 
घेरे रहता है मन को 
कब  , कहाँ कोई भेड़िया 
दबोच लेगा 
अपने शिकार को 
और वह तोड़ देता है दम 
निरीह भेड़ सा बना 
मेरे इस शहर में 
बसंत नहीं आता । 


अट्टालिकाओं से 
निकले कचरे में
फटेहाल  बच्चे 
बीनते हुये कुछ 
 शमन करते हैं 
अपनी भूख का 
और यह दृश्य 
निकाल देता  है दम
हमारी संवेदनाओं का 
मेरे इस शहर में 
बसंत नहीं आता ।



गाँव की गंध छोड़ 
जो आ बसे शहरों में
दिहाड़ी के चक्र में 
घूमती है ज़िंदगी 
सपने जो लाया था साथ अपने 
निकल जाता है उनका दम
रह जाती है तो 
बस एक  हताशा 
मेरे इस शहर में 
बसंत नहीं आता ।

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कुछ बात तो है .....

>> Tuesday, February 5, 2013



दो कच्चे  धागों  को 
जोड़ कर आपस में 
दिया जाता है जब  वट
तो हो जाते हैं मजबूत , 
हल्के से तनाव से 
नहीं जाते वे टूट ,

वैसे ही तुम और मैं 
साल दर साल 
वक़्त के साथ वट 
लगाते लगाते 
जुड़ चुके हैं इस कदर 
कि आसान नहीं है 
कोई भी  परिस्थिति 
तोड़ सके हमें  ।

कुछ बात तो है --
कि एक दूसरे से 
हैं शायद 
ढेरों शिकवे - शिकायतें 
फिर भी 
एक - दूजे के बिना 
लगता है अधूरापन । 
और इसी खयाल से 
आज के दिन 
तोहफे के रूप में 
मैं तुम्हें देती हूँ 
अपनी सारी  संवेदनाएं , 
ख्वाहिशें और  खुशियाँ ।


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रिश्तों का गणित

>> Tuesday, January 15, 2013


मैंने 


मैंने 
रख दिया था 
हर रिश्ता 
अलग अलग 
कोष्ठ में 
और सोचा था 
कि
हल कर लूँगी 
रिश्तों के सवाल  
गणित की तरह 
पर रिश्ते कोई 
गणित तो नहीं 
निश्चित नहीं होता 
कि कौन सा  कोष्ठ 
कब खोलना है 
किसे गुणा करना है 
और 
किसे जोड़ना है 
बस 
करती रहती हूँ कोशिश 
कि 
रिश्तों के कोष्ठकों के 
मिल जाएँ सही हल 
और रिश्तों  का गणित 
हो जाए सफल ..



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अक्स विहीन आईना

>> Monday, December 3, 2012




आज उतार लायी हूँ 
अपनी भावनाओं की पोटली 
मन की दुछत्ती से 
बहुत दिन हुये 
जिन्हें बेकार समझ 
पोटली बना कर 
डाल दिया था 
किसी कोने में ,
आज थोड़ी फुर्सत थी 
तो खंगाल रही थी ,
कुछ संवेदनाओं का 
कूड़ा - कचरा ,
एक तरफ पड़ा था 
मोह - माया का जाल , 
इन्हीं  सबमें  खुद को , 
हलकान करती हुई 
ज़िंदगी को दुरूह 
बनाती जा रही हूँ । 
आज मैंने झाड दिया है 
इन सबको  
और बटोर कर 
फेंक आई हूँ बाहर , 
मेरे  मन का घर 
चमक रहा है 
आईने की तरह , लेकिन 
अब  इस आईने में 
कोई अक्स नहीं दिखता । 



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खनकते सिक्के

>> Thursday, November 8, 2012




नारी और पुरुष को 
एक  ही सिक्के के 
दो पहलू  माना है 
पुरुष को हैड और 
स्त्री को टेल  जाना है 

पुरुष के दंभ ने 
कब नारी का मौन 
स्वीकारा  है 
उसके अहं के आगे 
नारी का अहं हारा है ।

पुरुष ने 
हर रिश्ते को 
अपने ही तराजू पर 
तोला  है , 
जबकि 
नारी ने हर रिश्ता 
मिश्री सा घोला है । 

पुरुष  अपने चारों ओर 
एक वृत बना 
घूमता रहता है 
उसके अंदर ,
नारी धुरी बन 
एक बूंद को भी 
बना देती है समंदर । 

सच ही  
नारी और पुरुष 
एक ही सिक्के के 
दो पहलू लगते हैं 
जो सिक्के की तरह ही 
पीठ जोड़े 
अपने अपने 
आसमां में खनकते  हैं । 


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