ठंडी राख
>> Monday, December 29, 2008
ज़िन्दगी     बस    धुँआ     सी   बन  गई  है 
शोले    भी  राख  में  बदल  गए  हैं 
साँसे  भी  रह - रह  कर  चल  रही  हैं 
धड़कन ही  कहती है कि हम  जी  रहे  हैं ।
जीने  के  लिए  भी  तो 
कोई  चिंगारी    होनी   चाहिए 
चिंगारी  ढूँढने के  लिए 
राख  को ही  कुरेदना  चाहिए। 
ज़रा  सा    छेड़ोगे   गर  हमे  तो 
गुबारों   की  तो  कोई  कमी   नही  है 
हम  हैं  यहाँ    की  आम      जनता 
जिसे  व्यवस्था   से  कोई  सरोकार  नही  है।
सोचने  के  लिए  वक्त   की   कमी  है 
हर  ढंग  में  रच -बस   से  गए  हैं 
काम  निकालना  है    बस  कैसे  भी 
इस  रंग  में ही सब  रंग  से  गए  हैं ।
चिंगारी  भी  कोई  भड़कती    नही  है 
सब  राख  का  ढेर   से  हो  गए  हैं 
इसको  कुरेदो  या  पानी  में  बहा दो 
सब  यहाँ   मुर्दे  से   हो  गए  हैं ।
गर  आती  है  जान  किसी  मुर्दे  में 
तो  उसे  फिर  से मार  दिया  जाता  है 
शोला  बनने से  पहले ही  चिंगारी  को 
ठंडी   राख  में  बदल  दिया   जाता  है.
 
 










 
 
 
 





