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जूता काण्ड

>> Wednesday, April 15, 2009

जूता चला जरनैल का

नही इससे किसी को सरोकार

निंदनीय कार्य कह कर

सब नेताओं ने कर डाला उपकार

जनता के आक्रोश को

समझ ना पाए पैरोकार

आम आदमी भी समझ ना पाए

कि कैसे माँगे अपना अधिकार?


पश्चिमी संस्कृति का

कितना असर होता है

अपने देश में इसका

साक्षात उदाहरण आया

जूते के वेश में ।

सोच रही हूँ आज बैठ कर

रोज़गार के नये द्वार खुल गये

जूता फेंको काम के लिए

विशेष प्रशिक्षण केंद्र खुल गये ।

जैसे हर दल आज अपने

जासूसों को रख रहा

कल जूता फेंकने के लिए

विशेषज्ञों को चुन रहा।

सोचो ज़रा फिर

देश का क्या नज़ारा होगा

मारे गये जूते को तो फिर

वारा - न्यारा होगा ।

जरनैल का जूता लाने वाले को

सवा पाँच लाख मिल जायेंगे

जूते को पाने के लिए ना जाने -

कितनी खून की नदियाँ बहाएँगे।

इस सारी बात का बस एक ही निचोड़ है कि---

आज इस जूता कांड के लिए

कोई कुछनही कर रहा

हर नेता बस जूते पर अपनी रोटी सेक रहा ।

2 comments:

पूनम श्रीवास्तव 4/17/2009 8:53 PM  

Adarneeya Sangeeta ji,
bahut achchhee vyangya kavita ...badhai.
Poonam

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