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वृद्धाश्रम

>> Monday, December 28, 2009



दर्जनों बूढी आँखें



थक गयी हैं



पथ निहारते हुए



कि शायद



उस बड़े फाटक से



बजरी पर चलता हुआ



कोई अन्दर आए



और हाथ पकड़



चुपचाप खड़ा हो जाये


कान विह्वल हैं



सुनने को किसी



अपने की पदचाप



चाहत है बस इतनी सी



कि आ कर कोई कहे



हमें आपकी ज़रुरत है



और हम हैं आपके साथ



पर अब



उम्मीदें भी पथरा गयी हैं



अंतस कि आह भी



सर्द हो गयी है



निराशा ने कर लिया है



मन में बसेरा



अब नहीं छंटेगा



अमावस का अँधेरा



ये मंज़र है उस जगह का



जहाँ बहुत से बूढ़े लोग



पथरायी सी नज़र से



आस लगाये जीते हैं



जिसे हम जैसे लोग



बड़े सलीके से



वृद्धाश्रम कहते हैं........

तन्हा

>> Wednesday, December 23, 2009


मन में

ना जाने कितनी

गिरह लगी हैं

एक - एक खोलूं

तो

सदियों लग जाएँ

और होता है

अक्सर यूँ

कि -

खोलने की कोशिश में

नयी गाँठ

पड़ जाती है ,

सोचती हूँ कि

जिस दिन

खुल गयीं

सारी गांठें

तो ज़िन्दगी में

जलजला ही आ जायेगा

ना तो

कोई राह सूझेगी

और ना ही कोई

खेवनहार आएगा ।

और रह जाउंगी

मैं केवल

तन्हा तन्हा तन्हा !

मुखौटा

>> Saturday, December 19, 2009



मैंने नहीं चाहा कि



कोई मेरे दिल के नासूरों को



रिसते हुए देखे ,



और ये भी नहीं चाहा कभी कि



कोई मेरे मन के छालों पर



फाहे रक्खे ।



पर फिर भी दिल



दुखता तो है



दर्द होता तो है ।




लोग कहते हैं कि



दर्द हद से गुज़र जाये तो



ग़ज़ल होती है



सच ही है ये



क्यों कि



मेरी लेखनी भी



कागज़ से लिपट रोती है



नहीं चाहा कभी किसी को



मेरे दर्द का अहसास हो पाए



इसीलिए आ जाती हूँ



सबके बीच



हंसी का मुखौटा लगाये .

सागर

>> Friday, December 18, 2009


तुम सागर हो


मैं इसके साहिल पे


सीली सी रेत पर बैठ


तुम्हारी लहरों की


अठखेलियाँ निहारती हूँ


और उन लहरों को देख


सुकून पाती हूँ ।


जानती हूँ कि


तुम्हारे गर्भ में


दर्द की


ना जाने कितनी


वनस्पति उगी है


हर छोटे बड़े


पेड़ पर


एक दर्द टंगा है


पर तुम उन्हें


सुप्तावस्था में ही


रहने दो


बस अपनी लहरों से


सबको उल्लसित करो


लेकिन


जब भी कोई पेड़


सिर उठाये


और अपना तेज़ाब


तुम तक पहुंचाए


तुम मुझे आवाज़ देना


मैं वो सब दर्द


पी जाउंगी


और थोड़ी सी


तुम्हारी उम्र


जी जाउंगी.

छुअन

>> Sunday, December 13, 2009


स्मृति की मञ्जूषा से

एक और पन्ना

निकल आया है

लिए हाथ में

पढ़ गयी हूँ विस्मृत

सी हुई मैं ।


आँखों की लुनाई

छिपी नहीं थी

तुम्हारा वो एकटक देखना

सिहरा सा देता था मुझे

और मैं अक्सर

नज़रें चुरा लेती थी ।


प्रातः बेला में

बगीचे में घूमते हुए

तोड़ ही तो लिया था

एक पीला गुलाब मैंने ।

और ज्यों ही

केशों में टांकने के लिए

हाथ पीछे किया

कि थाम लिया था

गुलाब तुमने

और कहा कि

फूल क्या खुद

लगाये जाते हैं वेणी में ?

लाओ मैं लगा दूँ

मेरा हाथ

लरज कर रह गया था।

और तुमने

फूल लगाते लगाते ही

जड़ दिया था

एक चुम्बन

मेरी ग्रीवा पर ।

आज भी गर्दन पर

तुम्हारे लबों की

छुअन का एहसास है.

अलगनी पर टंगे ख्वाब

>> Wednesday, December 9, 2009



चाहत की अलगनी पर


टांग दी थी


मैंने अपने


ख़्वाबों की पैरहन ।


उम्मीद का चाँद भी


देख रहा था उन्हें


बड़ी हसरत से


ख़ुशी की शबनम ने


भिगो दिया था


और कर दिया था


सीला - सीला सा


प्यार की बयार ने भी


सहलाया था धीरे से ।



पर


वक़्त के सूरज ने


भेज दिया था


नाउम्मीद का


प्रचंड ताप


और अलगनी पर ही


टंगे टंगे


झुलस गए थे


सारे मेरे ख्वाब ॥



दस्तूर

>> Friday, December 4, 2009


आंधियों ने कर दिया है


बर्बाद गुलिस्ताँ को


और धुंध चारो ओर


छा गयी हैं


किसी को भी


हाथों - हाथ


कुछ सूझता है


धूल उड़ कर


आँखों में आ गयी है


बंद हो गयीं हैं


सभी की आँखें


कुछ भी अब


दृष्टि गोचर नहीं है


कौन किसको क्या


दिखाना चाहता है


खुद की आँखें भी तो


खुली नहीं हैं ।


हर चेहरे पर हैं


बहुत से मुखौटे


एक उतारो तो


दूसरा टंग जाता है


किसके और कितने


उतारोगे मुखौटे


हर बार नया चेहरा


सामने आ जाता है॥


रखते हैं सब जेब में


एक - एक आइना


पर खुद को आइने में


कभी कोई देखता नहीं


दुनिया का है


शायद यही दस्तूर


कि खुद को कोई


पहचानता नहीं .

हमारी वाणी

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