बैठी थीं दो स्त्रियां
कानन कुञ्ज में
गुमसुम सी
नि:मग्न हुई
अचानक एक
बोल उठी ,
मांडवी ! ज़रा कहो तो ,
तुम आपबीती .
निर्विकार भाव से
बोली मांडवी कि
क्या कहूँ और
कौन सुनेगा हमें
कौन पहचानता है
बोलो न श्रुतिकीर्ति?
हाँ सच है -
हम सीता की भगिनियाँ
भरत, शत्रुघ्न की भार्या
कहाँ- कहीं बोलो कभी
हमारा नाम आया ?
सीता का त्याग और
भातृ - प्रेम लक्ष्मण का
बस यही सबको
नज़र आया .
उर्मिला का
विरह वर्णन भी
साकेत में वर्णित है
इसी लिए
उसका भी नाम
थोड़ा चर्चित है ..
हमारे नामों को
कौन पहचानता है ?
श्रुतिकीर्ति की बात सुन
मांडवी अपनी सोच में
गुम हो गयी
जिया था जो जीवन
बस उसकी यादों में
खो गयी ..
जब आये थे भरत
ननिहाल से तो
उनका विलाप याद आया
राम को वापस लाने का
मिलाप याद आया .
लौटे थे भाई की
पादुकाएं ले कर
और त्याग दिया था
राजमहल को
एक कुटी बना कर .
सीता को वनवास में भी
पति संग सुख मिला था
मुझे तो राजमहल में रह
वनवास मिला था ..
जो अन्याय हुआ मेरे साथ
क्या वो
जग जाहिर भी हुआ है?
मुझे तो लगता है कि
हमारा नाम
अपनी पहचान भी
खो गया है..
यह कहते सुनते वो
स्त्री छायाएं न जाने
कहाँ गुम हो गयीं
और मेरे सामने एक
प्रश्नचिंह छोड़ गयीं ..
क्या सच ही
इनका त्याग
कोई त्याग नहीं था
या फिर रामायण में
इनका कोई महत्त्व नहीं था ???
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