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टुकड़े टुकड़े ख्वाब

>> Monday, February 22, 2010



गर्भ -गृह से



आँखों की खिड़की खोल


पलकों की ओट से


मेरे ख़्वाबों ने


धीरे से बाहर झाँका


कोहरे की गहन चादर से


सब कुछ ढका हुआ था .






धीरे धीरे


हकीक़त के ताप ने


कम कर दी


गहनता कोहरे की


और


ख़्वाबों ने डर के मारे


बंद कर लीं अपनी आँखे .






क्यों कि -


उन्हें दिखाई दे गयीं थी


एक नवजात कन्या शिशु


जो कचरे के डिब्बे में


निर्वस्त्र सर्दी से ठिठुर


दम तोड़ चुकी थी
 
 

कलम आपकी या आपका

>> Saturday, February 20, 2010







आज आपके सामने एक संशय ले कर हाज़िर हुई हूँ...कि कलम शब्द पुल्लिंग है या स्त्रीलिंग...?






दरअसल बात है जब मैं किसी एक साईट पर गतिका के नाम से लिखती थी...किसी ने मुझसे पूछा कि गतिका नाम क्यों लगाया है आपने अपने नाम के साथ? मैंने कहा कि बस ये एहसास रहे कि मेरी कलम गतिमान रहे... निरंतर चलती रहे इस लिए ये नाम लिखती हूँ...


उन्होंने मुझे बताया कि आप कलम को स्त्रीलिंग के रूप में लिख रही हैं जब कि ये पुल्लिंग शब्द है....ये जान कर मुझे थोडा आश्चर्य हुआ क्यों कि मैं इस शब्द को हमेशा स्त्रीलिंग के रूप में ही प्रयोग करती थी...मैंने तुरंत शब्दकोष देखा ( ये शब्दकोष मेरी माँ का है जब वो पांचवीं कक्षा में थीं ) और पाया कि सच ही ये शब्द तो पुल्लिंग है...उसके बाद से मैं बहुत ध्यान रखती रही कि कहीं गलत प्रयोग ना हो जाये....कलम के स्थान पर लेखनी शब्द प्रयोग करने लगी...



आज मैं फिर असमंजस की स्थिति में हूँ .क्यों कि मैंने ब्लोग्स पर अक्सर देखा है कि ज्यादातर लोग कलम को स्त्रीलिंग के रूप में ही प्रयोग करते हैं...टिप्पणियों में लिखा होता है ---


आपकी कलम की धार तेज होती जा रही है .


आपकी कलम में जादू है.


आपकी कलम को नमन


खूब कलम चलाई है आपने ...... ऐसे ही और भी बहुत सी टिप्पणियां देखने को मिलती हैं...


मैं अपने सभी प्रबुद्ध साथियों से जानना चाहती हूँ की यदि शब्दकोष में ये शब्द पुल्लिंग है तो हम इसे स्त्रीलिंग में क्यों प्रयोग करते हैं....या प्रयोग करने की दृष्टि से हमने इसे स्त्रीलिंग का ही रूप दे दिया है?


मेरी जिज्ञासा इस लिए है क्यों कि भाषा में समय समय पर परिवर्तन होता रहता है.क्या पता कि इसमें भी परिवर्तन हो गया हो... तो बस आप सबसे प्रार्थना है कि


कृपया मेरी इस शंका का निवारण करें....आप सबके विचार सादर आमंत्रित हैं .धन्यवाद

चरैवेति - चरैवेति ( निरंतर चलना )

>> Tuesday, February 16, 2010


मैं जलधि

मरुस्थल का
खारेपन के साथ
मुझमे रेत भी
शामिल है
उड़ चलूँ मैं
आँधियों के साथ
ये फन मुझे
हासिल है .


मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
और है गरल कंठ में
तृप्त होने के भाव का
स्वांग सा रचाती हूँ .


मिल कर मुझसे सब
कुछ भ्रमित से हो जाते हैं
भूल जाते हैं सत्य को कि
गुल के साथ खार भी आते हैं...
उम्मीदों के चमन में लोग
ख्वाहिशों के फूल खिलाते हैं
नाउम्मीदी  के कांटे फिर
विषैले दंश ही चुभाते हैं .


न है मेरी कोई मंजिल
और न ही कोई राह है
मैं बस निरंतर
चलती चली जाती हूँ
लक्ष्यविहीन से पथ पर
बस अग्रसित हो जाती हूँ....

आख़िर किसे?

>> Sunday, February 14, 2010

दो साल से ज्यादा वक़्त हो गया इस लघु कथा को लिखे....पर जब



भी कहीं बम विस्फोट होता है तो अचानक ही ये कथा कौंध जाती


है मस्तिष्क में .....आज भी पुणे में बम विस्फोट हुआ..न जाने


कितने निर्दोष इसकी चपेट में आए होंगे....और कितने घरों में


कोहराम छाया होगा....मन द्रवित है ....आँखें नम हैं...



 
 
आखिर किसे ?
 
 
 
सुबह का समय. सब को काम पर जाने की जल्दी है. दौड़ते - भागते


लोकल ट्रेन पर चढ़ते हैं. ट्रेन ज़रा सा आगे बढ़ी कि भयानक


विस्फोट हुआ और ना जाने कितने माँस के लोथडे उड़ते हुए ज़मीन


पर आ लगे. देखने वाले कुछ समझे कुछ नही. नसीर का पूरा


परिवार एक ही फैक्टरी में काम पर जाता है. बस माँ घर पर रहती


है . इस धमाके में उसके परिवार के चार लोग मारे गये. उसके


पिता , दोनो भाई और वो खुद. आख़िर ये आतंकवादी किसे मारना


चाहते हैं...... आख़िर किसे?



फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं

>> Friday, February 12, 2010


अंसुअन की स्याही सूख गयी मैं कलम कहाँ डुबाऊं



अपनी मन की व्यथा कथा मैं किन शब्दों में कह जाऊं




प्रतिपल घटता जीवन जैसे कैसे मैं ठांव लगाऊं


चलता जीवन बहता दरिया , कैसे मैं बाँध बनाऊं




सोच भंवर के चलते जाते कैसे मैं पार हो पाऊं


तेज़ है धारा कश्ती उलटी ,कैसे पतवार चलाऊं




अनवरत बढती इच्छाओं पर कैसे प्रतिबन्ध लगाऊं


लोगों की मरती अभिलाषाओं पर कैसे मैं मुस्काऊं .




आंधी से एक दीप हैं लडता , कैसे मैं इसे बचाऊं


रिश्तो के झूठे बंधन हैं , कैसे जीवन चक्र चलाऊं




कंठ गरल से रुंधा हुआ है, कैसे अब मैं गाऊं


सूखा छाया है मन पर , फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं



http://chitthacharcha.blogspot.com/search/label/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C%20%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0?updated-max=2010-02-20T06%3A00%3A00%2B05%3A30&max-results=20







अकुलाहट

>> Wednesday, February 10, 2010


आकुल से मन की

व्याकुल सी भाषा है
छंद लिखूं कोई तो
वो भी तो आधा है




प्रखर है सोच, पर
वेग ज़रा ज्यादा है
बह जाता आवेश
लिखने में बाधा है




अवरुद्ध हुए भाव
बस स्वार्थ ही साधा है
संतुष्टि मिले कहाँ
मन पर बोझ ही लादा है .




आकुल से मन की
व्याकुल सी भाषा है
बह जाता आवेग
लिखने में बाधा है ....

सागर किनारे

>> Tuesday, February 9, 2010




सागर किनारे मैं



जब भी आई


हर लहर में दिखी


तेरी ही छवि समायी


लहरों के स्पर्श से


तेरी ही याद आई


हर जगह देता है


तेरा ही अक्स दिखाई


सीली सी रेत पर


तेरे नक़्शे- पा दिखते हैं


उन पर चल मेरे


कदम तुझ तक पहुंचते हैं


ख़्वाबों की दुनिया


बड़ी हंसीं लगती है


ख्याल जैसे मेरे


तुझ तक पहुंचते हैं


अचानक से उठती है


एक उद्वेग भरी लहर


मिटा देती है सारे निशां


और रह जाती हूँ मैं सिहर


सूनी सूनी सी आँखों से


कुछ आता नहीं नज़र


एक कतरा अश्क का


बन जाता है ज़हर


ना तुझको मेरी खबर


ना मुझको तेरी खबर


ये ख्वाहिशों का सैलाब


बन जाता है कहर

नर - नारी संवाद ..

>> Saturday, February 6, 2010


नर ---


हे प्रिय ,


मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ


तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूँ


तुम कहो तो चाँद तारों से


तुम्हारी झोली भी भर सकता हूँ ।


बस तुम मेरी ये प्यास बुझाओ


मेरे दग्ध होठों को


शीतल कर जाओ


मैं तुममे समां जाऊं


तुम मुझमें सिमट जाओ।




नारी -----------


दावा करते हो कि


तुम मुझे प्यार करते हो


लेकिन क्या कभी


मेरा मन  भी  पढते हो ?


मेरी ज़रूरत को आज तक


समझ नही पाये


और चाँद तारों की बात करते हो ।


तुमने सदैव अपना स्वार्थ साधा है


जब भी मुझे अपनी बाँहों में बांधा है


तुम कहते हो कि मुझमें समाते हो


पर क्या कभी मेरा मन भी छू पाते हो ?


तुमने  हमेशा बस अपनी खुशी चाही


तुम्हें मालूम नही कि


मुझ पर क्या गुज़री है


गर चाहते हो सच ही मुझे पाना


तो तन से पहले मन का पाना ज़रूरी है ।


जिस दिन तुम मेरा मन पा जाओगे


सारे एहसास अपने आप सिमट आयेंगे


न तुमको कुछ कहने की ज़रूरत होगी


और न ही मुझे कोई शब्द मिल पायेंगे।


फिर न तुम्हारे सुर में प्रार्थना का पुट होगा


और न ही मेरा मन यूँ आहत होगा


समर्पण ही मेरा पर्याय होगा


मौन ही मेरा स्वीकार्य होगा ....

विडम्बना

>> Wednesday, February 3, 2010




अक्सर -


सुबह सड़क पर


नन्हें बच्चों को देखती हूँ ,






कुछ सजे - संवरे


बस्ता उठाये


बस के इंतज़ार में


माँ का हाथ थामे हुए


स्कूल जाने के लिए


उत्साहित से , प्यारे से ,


लगता है


देश का भविष्य बनने को


आतुर हैं ।

और कुछ नन्हे बच्चे


नंगे पैर , नंगे बदन


आंखों में मायूसी लिए


चहरे पर उदासी लिए


एक बड़ा सा झोला थामें


कचरे के डिब्बे के पास


चक्कर काटते हुए


कुछ बीनते हुए


कुछ चुनते हुए


एक दिन की


रोटी के जुगाड़ के लिए


अपना भविष्य


दांव पर लगाते हुए


हर पल व्याकुल हैं ,


आकुल हैं.

लोकार्पण अनमोल संचयन पुस्तक का

>> Tuesday, February 2, 2010


"अनमोल संचयन "
ये पुस्तक ३१ कवियों की कविताओं का काव्य कलश है जो रश्मि प्रभा जी द्वारा संगृहीत है.
इसका विमोचन   पदमश्री    श्री  बाल स्वरुप राही  जी के द्वारा  १९ वें विश्व  पुस्तक मेला  में ३१  जनवरी  २०१० को प्रगति  मैदान  दिल्ली में संम्पन्न हुआ.


जिस कविता को मंच पर मैंने पढ़ा था वो मैं यहाँ प्रेषित कर रही हूँ...  ये  सुझाव मुझे अदा जी ने दिया है...    शुक्रिया अदा .


ज्ञान चक्षु खोल कर


विज्ञान का विस्तार कर


जा रहे हो कौन पथ पर


देखो ज़रा तुम सोच कर।






कौन राह के पथिक हो


कौन सी मंजिल है


सही डगर के बिना


मंजिल भी भटक गई है।






अस्त्र - शस्त्र निर्माण कर


स्वयं का ही संहार कर


क्या चाहते हो मानव ?


इस सृष्टि का विनाश कर ।






विज्ञान इतना बढ़ गया


विनाश की ओर चल दिया


धरा से भी ऊपर उठ


ग्रह की ओर चल दिया ।






हे मनुज ! रोको कदम


स्नेह से भर लो ये मन


लौट आओ उस पथ से


हो रहा जहाँ मनुष्यता का पतन।





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