फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं
>> Friday, February 12, 2010
अंसुअन की स्याही सूख गयी मैं कलम कहाँ डुबाऊं
अपनी मन की व्यथा कथा मैं किन शब्दों में कह जाऊं
प्रतिपल घटता जीवन जैसे कैसे मैं ठांव लगाऊं
चलता जीवन बहता दरिया , कैसे मैं बाँध बनाऊं
सोच भंवर के चलते जाते कैसे मैं पार हो पाऊं
तेज़ है धारा कश्ती उलटी ,कैसे पतवार चलाऊं
अनवरत बढती इच्छाओं पर कैसे प्रतिबन्ध लगाऊं
लोगों की मरती अभिलाषाओं पर कैसे मैं मुस्काऊं .
आंधी से एक दीप हैं लडता , कैसे मैं इसे बचाऊं
रिश्तो के झूठे बंधन हैं , कैसे जीवन चक्र चलाऊं
कंठ गरल से रुंधा हुआ है, कैसे अब मैं गाऊं
सूखा छाया है मन पर , फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं
http://chitthacharcha.blogspot.com/search/label/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C%20%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0?updated-max=2010-02-20T06%3A00%3A00%2B05%3A30&max-results=20
26 comments:
ओह्ह बड़ी मार्मिक रचना है...किसी विरहन की आतर पुकार सी...उसके मन की व्यथा को अच्छा संजोया है,शब्दों में
बहुत सुंदर भाव....अच्छी कविता...बधाई
अलग अंदाज दी पर बहुत प्यारा ..सुरीला सा गीत...
aankho ke sath man ko bhee bheega dene wala geet rach dala hai aapne.......itanee kalap kee kalpanaa ko mera naman.....................
बहुत सुंदर भाव से सजी अच्छी कविता...बधाई!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 13.02.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
बेहतरीन शब्दों में ....लाजवाब रचना....
आभार....
बहुत ही उम्दा रचना लगी , अभी तक जितना भी मैंने आपको पढा उसमे आपकी ये रचना सबसे बढिया लगी ।
कंठ गरल से रुंधा हुआ है...कैसे अब मै गाऊ...
मन का संताप शब्दों में ढल कर एक बहुत अच्छी गज़ल का रूप ले गया है..
बहुत बढ़िया..
संगीता जी, आदाब
अंसुअन की स्याही सूख गयी.....
प्रतिपल घटता जीवन जैसे कैसे मैं ठांव लगाऊं
चलता जीवन बहता दरिया , कैसे मैं बाँध बनाऊं
और
आंधी से एक दीप हैं लडता , कैसे मैं इसे बचाऊं
रिश्तो के झूठे बंधन हैं , कैसे जीवन चक्र चलाऊं
इन पंक्तियों का जवाब नहीं
बधाई
सुन्दर भाव के साथ शानदार रचना. अच्छा व्यथा चित्रण!
कंठ गरल से रुंधा हुआ है, कैसे अब मैं गाऊं
सूखा छाया है मन पर , फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं
बहुत मार्मिक !!
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें!
बहुत बढ़िया लगा ! बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने ! बधाई!
"कंठ गरल से रुंधा हुआ है, कैसे अब मैं गाऊं
सूखा छाया है मन पर , फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं"
बेहद सुन्दर पंक्तियाँ । कसकता हुआ सा मन है ! मन का बहुत कुछ उतर आया है इस रचना में । आभार ।
अति सुन्दर रचना ......
आंधी से एक दीप हैं लडता , कैसे मैं इसे बचाऊं
रिश्तो के झूठे बंधन हैं , कैसे जीवन चक्र चलाऊं..
कैसे मल्हार सुनाऊं ....
बहुत ही लाजवाब, सुंदर भाव, तरन्नुम में गाए जाने वाली रचना है ..... बधाई ...
bahut gahre bhav sagar mein dubki lagayi hai.........bahut sundar.
कंठ गरल से रुंधा हुआ है, कैसे अब मैं गाऊं
सूखा छाया है मन पर , फिर कैसे मल्लहार सुनाऊं आदरणीया संगीता जी, आपकी इन पंक्तियों ने मन को झकझोर दिया। बहुत ही हृदय स्पर्शी रचना। पूनम
Hi..
Pratham to krupya mera Pranam sweekar karen..
Halnki aapki kavitaon ka prashansak main pahle se raha hun.. SRUJAN.. , main aapki kavitaon se do char hua tha..
Aaj pahli baar aapke blog par aane ka saubhagya mila hai.. Kahte hi hain jab-jab, jo-jo, hona hai tab-tab, so-so hota hai.. Tab nahi to ab sahi..
Shuruat aapke geet se ki..KYA MALHAR SUNAUN..
Wah.. Na klisht shabd, na anyavshyak shabdon ka jamavda, saral bhasha main bhav purn rachna dil ko chhu gayi..
Dhanyavad..
DEEPAK..
'कंठ गरल में रुंधा हुआ है -----कैसे मल्हार सुनाऊँ '
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ |अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई |
आशा
झूठे बंधन का चक्र .. जीवन चक्र .. टंग गयी मन के खूंटे पर..
सोच भंवर के चलते जाते कैसे मैं पार हो पाऊं
तेज़ है धारा कश्ती उलटी ,कैसे पतवार चलाऊं
मनः स्थिति को स्वाभाविक रूप से बयान करती पंक्तियाँ।
सादर
क्या कहने,
बहुत सुंदर
सुंदर भाव!
कंठ गरल से रुंधा हुआ है, कैसे अब मैं गाऊं
बढ़िया रचना है दी....
सादर...
गहन व्यथा व्यक्त करता हुआ मन ...
बहुत सुंदर भाव उकेरे हैं ...
बहुत बधाई ..संगीता जी ...!!
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