चरैवेति - चरैवेति ( निरंतर चलना )
>> Tuesday, February 16, 2010
मैं जलधि
मरुस्थल का
खारेपन के साथ
मुझमे रेत भी
शामिल है
उड़ चलूँ मैं
आँधियों के साथ
ये फन मुझे
हासिल है .
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
और है गरल कंठ में
तृप्त होने के भाव का
स्वांग सा रचाती हूँ .
मिल कर मुझसे सब
कुछ भ्रमित से हो जाते हैं
भूल जाते हैं सत्य को कि
गुल के साथ खार भी आते हैं...
उम्मीदों के चमन में लोग
ख्वाहिशों के फूल खिलाते हैं
नाउम्मीदी के कांटे फिर
विषैले दंश ही चुभाते हैं .
न है मेरी कोई मंजिल
और न ही कोई राह है
मैं बस निरंतर
चलती चली जाती हूँ
लक्ष्यविहीन से पथ पर
बस अग्रसित हो जाती हूँ....
22 comments:
दी ! मुठ्ठी में बंद .......रचती हूँ ...ये पंक्तियाँ न जाने कितनी बार पढ़ गई मैं ...स्तब्ध हूँ आपकी रचनात्मकता पर..कैसे इतनी गहरी बात यूँ ही कह देती हैं आप...
बहुत सुन्दर रचना.
दी ! मुठ्ठी में बंद .......रचती हूँ ...ये पंक्तियाँ न जाने कितनी बार पढ़ गई मैं ...स्तब्ध हूँ आपकी रचनात्मकता पर..कैसे इतनी गहरी बात यूँ ही कह देती हैं आप...
बहुत सुन्दर रचना.
उम्मीदों के चमन में लोग
ख्वाहिशों के फूल खिलाते हैं
नाउम्मेदी के कांटे फिर
विषैले दंश ही चुभाते हैं .
बहुत खूब क्या पंक्तियाँ हैं ...बड़े गहरे भाव सहेजे हैं आपने... .
हर एक पंक्तियां लाजवाब लगी ,बहुत उम्दा ।
बहुत ही सुन्दर तथा प्रेरणात्मक रचना है ...आपको बहुत बहुत धन्यवाद पढवाने के लिए
सादर
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
बहुत गहन और लाजबाब रचना.
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
चलना और चलते जाना --- पर लक्ष्यविहीन कहाँ तक और क्यों
अंत:करण को अभिव्यक्त करती खूबसूरत रचना
जीवन चलने का नाम,
चलते रहो सुबह-ओ-शाम,
जो जीवन से हार मानता,
उसका हो गया छुट्टी,
हाथ बढ़ाकर कहे जिंदगी,
तेरा मेरा हो गया कुट्टी...
जय हिंद...
jitnee tareef kee jae kamee hee rahegee.........
Bahut sunder abhivyktee...........
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
नाउम्मेदी के कांटे फिर
विषैले दंश ही चुभाते हैं .
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
Ye panktiya asar chod gayee............
पहले की पंक्तियाँ बांध लेती हैं, पर बाद में उसे और शक्ति दे देती हैं, बहुत ही बढ़िया भाव..
न है मेरी कोई मंजिल
और न ही कोई राह है
मैं बस निरंतर
चलती चली जाती हूँ
लक्ष्यविहीन से पथ पर
बस अग्रसित हो जाती हूँ..
--यही तो जीवन है..चलते जाना...राह भी...मंज़िल भी मिल ही जाएगी.
bahut khoobsurat rachna
न है मेरी कोई मंजिल
और न ही कोई राह है
मैं बस निरंतर
चलती चली जाती हूँ
लक्ष्यविहीन से पथ पर
बस अग्रसित हो जाती हूँ...
पूर्ण लक्ष तो आज तक किसी को भी नही मिल पाया .... चलने का नाम ही जिंदगी है ... जितना समय अच्छा गुज़र जाए वो ही अच्छा ....
हर एक पंक्तियां लाजवाब लगी ,बहुत उम्दा
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
और है गरल कंठ में
तृप्त होने के भाव का
स्वांग सा रचाती हूँ .
bahut hi sundar prastuti........bahut hi gahan bhav.........aabhar.
अतृप्त सी......रचाती हु..
जब इछाये अतृप्त होंगी...तो गरल का कंठ में आना स्वाभाविक है.....और ऐसे में तृप्त होने के स्वांग के अलावा कोई रास्ता ही नहीं होता...अच्छे शब्द दिए है एहसासों को..
भूल जाते है.......चुभाते है..
सत्य को याद करे...या भूल जाये...जो गुल की तासीर है वो तो सामने आएगी ही...और ये गलती है उनकी जो भूल जाते है....और जब चमन ही उम्मीद का हे तो ख्वाहिशो के फूल ही हर कोई खिलाना चाहेगा...कांटे कोन चाहेगा..ab ये तो kismat है अपनी अपनी की किसी को नाउम्मीदी के कांटे मिले या उमीदो के फूल...एक गीत के बोल याद आये...
जिसके नसीब में जो लिखा था..वो तेरी महफ़िल में काम आया...किसी के हिस्से में प्यास आई..किसी के हिस्से में jaam आया..
ना है मेरी कोई ..........अग्रसित हो जाती हु..
इसका जवाब में यु देना चाहूंगी..
किसी को गुल बांटे
किसी को खार
खुद भी अतृप्त रहे..
और कंठ से गरल
के दिए भाव.
उम्मीदों के चमन
से बाँट दिए
ना उमीदी के विकार
खुद भी मंजिल भूल गए..
लक्ष्यविहीन हो,
रहे पंथ निहार.
ऐसे अग्रसर क्या होना है..
कदम बढ़ाओ..
बनो पथिक
एक नीति पथ लो संभाल.
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
और है गरल कंठ में
तृप्त होने के भाव का
स्वांग सा रचाती हूँ .
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति साथ.... सार्थक रचना...
आप सभी का हृदय से आभार ....
अनामिका,
आभार कि इतनी सुन्दर पंक्तियाँ गढ़ी हैं और रास्ता सुझाने का प्रयास किया है...
खुद भी मंजिल भूल गए..
लक्ष्यविहीन हो,
रहे पंथ निहार.
मेरे शब्द
पथिक पंथ निरखत नाहीं ...
कर लो तनिक विचार
चलते जाना लक्ष्यविहीन सा
आये तूफ़ान हज़ार
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
और है गरल कंठ में
तृप्त होने के भाव का
स्वांग सा रचाती हूँ आदरणीया संगीता जी, बहुत ही खूबसूरती के साथ आपने भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है। पूनम
मिल कर मुझसे सब
कुछ भ्रमित से हो जाते हैं
भूल जाते हैं सत्य को कि
गुल के साथ खार भी आते हैं...
उम्मीदों के चमन में लोग
ख्वाहिशों के फूल खिलाते हैं
नाउम्मेदी के कांटे फिर
विषैले दंश ही चुभाते हैं .
sunder abhivyakti.
मुट्ठी में बंद कर
बांधने की करो कोशिश
तो रेत की तरह ही
मुट्ठी से फिसल जाती हूँ
अतृप्त सी हैं इच्छाएं
और है गरल कंठ में
तृप्त होने के भाव का
स्वांग सा रचाती हूँ .
क्या बात है संगीता जी. कमाल की पंक्तियां. बधाई.
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