विडम्बना
>> Wednesday, February 3, 2010
अक्सर -
सुबह सड़क पर
नन्हें बच्चों को देखती हूँ ,
कुछ सजे - संवरे
बस्ता उठाये
बस के इंतज़ार में
माँ का हाथ थामे हुए
स्कूल जाने के लिए
उत्साहित से , प्यारे से ,
लगता है
देश का भविष्य बनने को
आतुर हैं ।
और कुछ नन्हे बच्चे
नंगे पैर , नंगे बदन
आंखों में मायूसी लिए
चहरे पर उदासी लिए
एक बड़ा सा झोला थामें
कचरे के डिब्बे के पास
चक्कर काटते हुए
कुछ बीनते हुए
कुछ चुनते हुए
एक दिन की
रोटी के जुगाड़ के लिए
अपना भविष्य
दांव पर लगाते हुए
हर पल व्याकुल हैं ,
आकुल हैं.
19 comments:
सार्थक पोस्ट आपकी। सच से रूबरू कर गई।
ऐसे ही निरंतरता बनाए रखे।
मेरी ओर से तोहफा
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राजू बन गया 'दी एंग्री यंग मैन'
बाजारवाद में ढलता सदी का महानायक
एक सच्चाई से रूबरू करती हुई ..........एक सुन्दर रचना ....
Bahut hi sanvedanshil rachana hai ye hamare desh ka katu stya bayan karati .....sachmuch in navnihalo ka yu shiksha jo ki inka adhikaar hai , ko mohtaj hona ham sabhi deshwasiyon ke liye bahut badi vidambana hai....
bahut acchi rachana ..Badhai!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
बच्चों की पीड़ा को आपने शब्द दिये!
आभार!
मार्मिक भी और यथार्थ भी
बहुत सम्वेदंशील रचना
ise sarthak rachana kee tareef karana sury ko deepak dikhana hai........
ati sunder...........
yatharth se ot-prot.....
सुंदर शब्दों के साथ... सुंदर और सार्थक पोस्ट....
आभार....
कविता काफी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है। ये करूणा के स्वर नहीं है। ऐसी निरीह, विवश, और अवश अवस्था में भी उनके संघर्षरत छवि को आपने सामने रखा है। यह प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज है।
पुन:
आपकी कविता पढकर एक शेर याद आ गया
वक़्त से पहले ही पक जाती है कच्ची उम्रें
मुफ़लिसी नाम है बचपन में बड़ा होने का।
दी बहुत ही स्पष्ट और भावुक दृश्य प्रस्तुत किया है आपने...वाकई हमरे देश के ये कर्णधार.......क्या कहूँ बहुत अच्छी कविता है
संगीता जी हम हमेशा अपने देश और उसकी व्यवस्था को दोष देते है...गरीबी को दोष देते है..कभी ये भी देखते है की ऐसे नन्हे नंगे बदन बच्चो की हालत के जिम्मेदार सबसे ज्यादा इनके माता-पिता होते है जो सिर्फ इन्हें पैदा करने और भीख मांग कर उन्ही का पेट पालने के लिए करते है..देखि हु ऐसे माँ-बाप को भी करीब से की वो इनकी भीख की कमाई को दारू पीने में लगते है..पढ़ाना तो दूर की बात है...क्या इन बच्चो के नहाने के लिए पानी भी मयस्सर नहीं होता...जो ये इतने मैले-कुचैले होते है..तो इसके लिए दोषी कोन...हमारा देश...हमारा समाज ...या इन्ही के माँ-बाप.
आपकी रचना बहुत अच्छी है...लेकिन मुझे ऐसे बच्चो की हालत देख देश की व्यवस्था पर नहीं इनके पैदा करने वालो पर गुस्सा आता है..
सच कैसी विडंबना है...आपकी कविता की पंक्तियाँ एक बार फिर से इस सच को उजागर कर गयीं...जिस से हम आँखें चुरा लेना चाहते हैं...बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना...
सच्चाई को उकेरती बढिया रचना .......
अनामिका जी,
आपकी बात सही होते हुए भी कुछ सीमित दायरे में है....ऐसे बच्चों के माँ - बाप का जीवन स्तर ही ऐसा होता है कि वो बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकते....प्राथमिक शिक्षा देना तो सरकार का काम है..योजनाएं हैं पर कितनी योजना क्रियान्वित होती हैं बात असल में ये है...जो बच्चे कचरा बीनते हैं उनको खाना भी नसीब नहीं होता....और ये सोच लेना कि हर काम सरकार का है ये भी उचित नहीं है...क्या कभी हमने सोचा है कि हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?
आपकी बात सही है कि बच्चों के कमाए पैसों से उसका पिता शराब पीता हो पर यदि वो बच्चा पढने जाता तो कम से कम उसका पिता उसके पैसों से दारु तो नहीं पीता ...महज़ गुस्सा करने से तो कुछ नहीं बदल सकता ना ..
मर्मस्पर्शी!! भावुक चित्रण एक सत्य का!
satya magar katu aur marmik.
sachchai se pur rachna...
wah Di, kya likha diya
simple, sundar , saral and sochniye
badhai
इसे समय की विडंबना कहिए या अपने देश के नेताओं की सोच ........... ६३ साल की आज़ादी के बाद भी बचपन रुलता है गलियों में .......... बहुत अच्छा लिखा है आपने ..........
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