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नीयति

>> Sunday, August 31, 2008

दरिया हूँ मैं
मुझे बहने दो
बहना ही स्वाभाव है मेरा
उसे वैसे ही रहने दो
तुम चाहोगे कि
मुझे बाँध लोगे
और अथक प्रयास
से मुझे रोक लोगे
तो ये तुम्हारा
एक निरर्थक प्रयास है
कब बंध पाई है
कोई नदी ?

तुम कहोगे कि -
मैं मानव पुत्र
"नदी को बाँध चुका हूँ
नहरें निकाल चुका हूँ
बिजली बना चुका हूँ "
पर मेरा प्रश्न है -
फिर उसके बाद ?

फिर से बही है नदी
अपने उसी रूप में
अपने गंतव्य की ओर
जाते हुए
इठलाते , बल खाते हुए
तुम रोक नही पाए उसे ।
इसीलिए कहती हूँ कि
जैसा जिसका स्वाभाव है
उसे वैसा ही रहने दो
मुझे भी बस
दरिया जैसा ही बहने दो ।

यादें बचपन की

>> Friday, August 29, 2008

अक्सर अकेली स्याह रातों में
अपने आप से मिला करती हूँ
और अंधेरे सायों में
अपने आप से बात किया करती हूँ।
याद आते हैं वो
बचपन के दिन
जब भाई के साथ
गिल्ली - डंडा भी खेला था
भाई को चिढाना ,
उसे गुस्सा दिलाना
और फिर लड़ते - लड़ते
गुथ्थम - गुथ्था हो जाना
माँ का आ कर छुडाना
और डांट कर
अलग - अलग बैठाना
माँ के हटते ही
फिर हमारा एक हो जाना
एक दूसरे के बिना
जैसे वक्त नही कटता था
कितनी ही बातें
बस यूँ ही याद आती हैं ।

कैसे बीत जता है वक्त
और रिश्ते भी बदल जाते हैं
माँ का अंचल भी
छूट जाता है
और हम ,
बड़े भी हो जाते हैं
पर कहीं मन में हमेशा
एक बच्चा बैठा रहता है
समय - समय पर वो
आवाज़ दिया करता है
उम्र बड़ी होती जाती है
पर मन पीछे धकेलता रहता है।

काश बीता वक्त एक बार
फिर ज़िन्दगी में आ जाए
माँ - पापा के साथ फिर से
हर रिश्ते में गरमाहट भर जाए.

एक कोशिश

रात की स्याही जब
चारों ओर फैलती है
गुनाहों के कीड़े ख़ुद -ब -ख़ुद
बाहर निकल आते हैं

चीर कर सन्नाटा
रात के अंधेरे का
एक के बाद एक ये
गुनाह करते चले जाते हैं।

इनको न ज़िन्दगी से प्यार है
और न गुनाहों से है दुश्मनी
ज़िन्दगी का क्या मकसद है
ये भी नही पहचानते हैं।

रास्ता एक पकड़ लिया है
जैसे बस अपराध का
उस पर बिना सोचे ही
बढ़ते चले जाते हैं।

कभी कोई उन्हें
सही राह तो दिखाए
ये तो अपनी ज़िन्दगी
बरबाद किए जाते हैं।

चाँद की चाँदनी में
ज्यों दीखता है बिल्कुल साफ़
चलो उनकी ज़िन्दगी में
कुछ चाँदनी बिखेर आते हैं।

कोशिश हो सकती है
शायद हमारी कामयाब
स्याह रातों से उन्हें हम
उजेरे में ले आते हैं ।

एक बार रोशनी गर
उनकी ज़िन्दगी में छा गई
तो गुनाहों की किताब को
बस दफ़न कर आते हैं.

खामोशी रात की

>> Wednesday, August 27, 2008

रात की खामोशी में
ये कैसी सरगोशी है?
मन ढूंढ रहा है कुछ
तन में भी बेहोशी है।
तन्हाई का आलम है
पर तनहा नही रहती
ख़ुद से कुछ चाहूँ कहना
पर बात नही मिलती
एक ख्वाब सा आंखों में
साया बन के उतरता है
उस साए को छूने की भी
इजाज़त नही होती
घने अंधेरे में यूँ
चाँद का चमकना
तारों के बीच फिर
स्याह रात नही होती
ज़िन्दगी में यूँ चमक जब
आ जाती है अचानक
फिर कुछ पाने की
मन में चाह नही होती .


तन्हाई

क्यों आ जाती है ज़िन्दगी में
रात की तन्हाईयाँ
जब वक्त होता है
ख़ुद को ख़ुद से मिलने का
न कोई शोर होता है
और न ही कोई व्यावधान
उस वक्त ही ,
तन्हाईयाँ चली आती हैं
मिलने नही देतीं
स्वयं को ही स्वयं से
कहीं और खींच
ले जाती हैं सारा ध्यान
और मैं रह जाती हूँ
अकेली -
स्याह रात में खड़ी की खड़ी।

भेद- अभेद

>> Monday, August 25, 2008

हैं दोनों भेद - रहित
फिर भी देखो कितना अन्तर है
एक मन मन्दिर में वास रहा
दूजा सड़कों का पत्थर है ।

तूने चाहा फूलों की महक को
मैंने काँटों को अपनाया है
तूने खुशियों की रंगीनी देखी
मैंने अश्कों के लिए -
सूना दामन फैलाया है ।

तूने दूधिया स्नात चाँदनी में
अपना प्यार लुटाया है
मैंने अमावस की रातों में
हर दर्द को दफनाया है ।

तूने खुशी की चाहत में
दूसरे का दर्द नही देखा
मैंने तेरे दर्द के लिए
हर खुशी को ठुकराया है।

तूने शीशे के महलों से
इस दुनिया को देखा है
मैंने ठोकर खा - खा कर
इस दुनिया को अपनाया है।

है तेरी ज़िन्दगी बसंत ऋतू
हर खुशी का फूल खिल जाएगा
मेरी ज़िन्दगी है पतझर
जिसमें हर पत्ता गिर जाएगा ।

है दोनों भेद - रहित
फिर भी देखो कितना अन्तर है
एक मन मन्दिर में वास रहा
दूजा सडकों का पत्थर है.

राज़

फूल ने कली से मुस्कुरा कर कहा कि
तेरे पर भी बहार आएगी
तू भी फूल बनते - बनते
यूँ ही बिखर जायेगी
पर कली ने उस बात का
वह राज़ न जाना
उसकी उस बात को
ज़रा सच न माना
पर आया वक्त तो
वह फूल बन गई
मस्ती से भरी कली
यूँ ही बिखर गई
अपने हालात पर वो
काफ़ी दुखी थी
कहती है फूल से,
मुझे माफ़ करो
मैं तुम पर
यूँ ही हँसी थी .

असमंजस

>> Saturday, August 16, 2008

द्रोण ,
जो आधुनिक युग के
गुरुओं के
पथ - प्रदर्शक थे
उन्होंने सिखाया कि
पहले लक्ष्य साधो
फिर शर चलाओ
अर्थात
पहले मंजिल को देखो
फिर मंजिल पाने के लिए
कर्म करो,
कृष्ण ने कहा कि -
कर्म करो ,
फल की इच्छा मत रखो
मैं , अकिंचन
क्या करुँ ?
एक ईश्वर और एक गुरु
कबीर ने कहा -----
गुरु की महिमा अपरम्पार
जिसने बताया ईश्वर का द्वार
गुरु की मानूं तो फल - भोगी
हरि को जानूं तो कर्म - योगी
क्या बनना है क्या करना है
निर्णय नही लिया जाता है
पर लक्ष्य बिना साधे तो
कर्म नही किया जाता है .




क्षणिकाएँ (ज़िंदगी पर)

ज़िंदगी,

क्या एक सुलगती माचिस नही

जो कुछ क्षण सुलगी

और फिर बुझ गयी।
* * * * * * * * * *


ज़िंदगी,

एक ऐसी पहेली

जिसका हल ढूंढते- ढूंढते ही

ख़तम हो जाती है

पर -

उत्तर नही मिलता।
* * * * * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
शराब का जाम है
जो छलक कर
कुछ क्षणों में
खाली हो जाता है ।
* * * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
गम का दरिया है
जिसमें
चंद लम्हों के
सुख के लिए
इंसान डूब जाता है।

* * * * * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी

दिन का शोर है
जो -
रात की खामोशी में
डूब जाता है।

* * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
एक पेड़ है
जिस पर -
कभी बहार
तो कभी
पतझर है।

* * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
गुलाब का पौधा है
जिसकी हर शाखा
काँटों से भरी हुई है
फिर भी -
एक गुलाब की खुशबू
हर टहनी में बसी हुई है









पत्थर का गुण

>> Friday, August 15, 2008

एक पत्थर को देख
अक्सर ये ख़याल आता है
कि, मैं पत्थर बन जाऊं
क्यों कि -
उसकी भी महत्ता है
राह पर पड़ा हुआ
वह
सबसे ठोकर खाता है
पर मनुष्य स्वार्थवश
ख़ुद के लिए यह कहता है कि
पत्थर से उसने ठोकर खाई है
वह सुनता है धैर्य से
और चुप रह जाता है
क्यों कि
उसकी आवाज़, उसकी भावना
कोई नही समझता
गर कोई समझता भी है
तो अनजान बन जाता है
और
वह पत्थर
चुप रहने के गुण में
लीन हो जाता है.

खूंटा बनाम ज़िन्दगी

मैं और मेरा मन
ज़िन्दगी के खूंटे को गाड़ कर
कोल्हू के बैल की तरह
ज़िन्दगी के चारों ओर घूम रहा है।

आंखों पर पट्टी और गर्दन में घंटी
कुछ इसी तरह की ज़िन्दगी
हमारी हो गई है
बैलों की ज़िन्दगी से भी
भारी ये ज़िन्दगी
खूंटे के चारों ओर
घूमती रह गई है.

ज़िन्दगी क्या है ?

ज़िन्दगी पर पल - पल
निरर्थकताएँ हावी होती जा रही हैं
और ये सोचना
बेमानी हो गया है कि
सागर की लहरों में संगीत होंगा
बौद्धिक तत्व अपनी बुद्धि के भ्रम में
ख़ुद को तोड़ रहे हैं
और ये सोचना
बेमानी हो गया है कि
उनका कौन सा समाज होगा
गर मैं --
बौद्धिक वर्ग में हूँ तो
क्या स्वयं को तोड़ रही हूँ
या सड़ी - गली बैसाखी से
टूटी टाँग जोड़ने की
कोशिश कर रही हूँ
और इस कोशिश से
ये बेमानी हो गया है की
मैं क्या हूँ ?
तुम ख़ुद को व्यावसायिक कहते हो
मात्र हाथ की सफाई को
ज़िन्दगी कहते हो
और उस दर्शन से
यह सोचना बेमानी हो गया है
कि ज़िन्दगी क्या है.

खोया/ पाया

हर पल पल - पल मेरा है
फिर भी -
पल पर अधिकार कहाँ मुझको
कब , किसने ,क्या जाना
मेरे अंतस की गहराई को,
मैं तन्हाँ हूँ
राहें तन्हाँ हैं
मंजिल भी मेरी तन्हां हो चली है
तन्हाई के इस क्षण में
मन पर मेरे पल हावी है
क्यों कर मैंने पाया था
क्यों कर मैंने खोया है.

प्रदुषण

>> Thursday, August 14, 2008

जीवन के आधार वृक्ष हैं ,
जीवन के ये अमृत हैं
फिर भी मानव ने देखो,
इसमें विष बोया है.
स्वार्थ मनुष्य का हर पल
उसके आगे आया है
अपने हाथों ही उसने
अपना गला दबाया है
काट काट कर वृक्षों को
उसने अपना लाभ कमाया है
पर अपनी ही संतानों के
सुख को स्वयं खाया है
आज जिधर देखो
प्रदुषण फ़ैल रहा है
वृक्षों के अंधाधुंध कटाव से
ये दुःख उपजा है
क्यों नहीं समय रहते
इन्सान जागा है
सच्चाई के डर से
आज मानव भागा है.
बिना वृक्षों के क्या
मानव जीवन संभव होगा
इस प्रदुषण में क्या
सांसों का लेना संभव होगा
आज अग्रसित हो रहा
मानव विनाश की ओर
इस धरती पर क्या मानव का
जीवित रहना संभव होगा?
कुछ करना है गर
काम तो ये कर डालो
पोधों को रोपो और
वृक्षों को दुलारों
आज समय रहते यदि
तुम चेत जओगे
तो आगे आने वाली नसलों को
तुम कुछ दे पाओगे
.हे मनुज!
अंत में प्रार्थना है मेरी तुमसे
वृक्षों को तुम निज संताने जानो
वृक्ष तुम्हारी सम्पत्ति,
तुम्हारी धरोहर हैं
इस सच को अब तो पहचानो.

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