ज़िन्दगी क्या है ?
>> Friday, August 15, 2008
ज़िन्दगी पर पल - पल
निरर्थकताएँ हावी होती जा रही हैं
और ये सोचना
बेमानी हो गया है कि
सागर की लहरों में संगीत होंगा
बौद्धिक तत्व अपनी बुद्धि के भ्रम में
ख़ुद को तोड़ रहे हैं
और ये सोचना
बेमानी हो गया है कि
उनका कौन सा समाज होगा
गर मैं --
बौद्धिक वर्ग में हूँ तो
क्या स्वयं को तोड़ रही हूँ
या सड़ी - गली बैसाखी से
टूटी टाँग जोड़ने की
कोशिश कर रही हूँ
और इस कोशिश से
ये बेमानी हो गया है की
मैं क्या हूँ ?
तुम ख़ुद को व्यावसायिक कहते हो
मात्र हाथ की सफाई को
ज़िन्दगी कहते हो
और उस दर्शन से
यह सोचना बेमानी हो गया है
कि ज़िन्दगी क्या है.
2 comments:
ज़िन्दगी पर पल - पल
निरर्थकताएँ हावी होती जा रही हैं
और ये सोचना
बेमानी हो गया है कि
सागर की लहरों में संगीत होंगा
बौद्धिक तत्व अपनी बुद्धि के भ्रम में
ख़ुद को तोड़ रहे हैं
और ये सोचना
बेमानी हो गया है कि
उनका कौन सा समाज होगा
गर मैं --
बौद्धिक वर्ग में हूँ तो
क्या स्वयं को तोड़ रही हूँ
- sangeeta ji yaha tak sb samajh aata hai..
या सड़ी - गली बैसाखी से
टूटी टाँग जोड़ने की
कोशिश कर रही हूँ
lekin yaha asmanjas me hu ki kon si sadi-gali baisakhi ki baat kar rahi hai aap is samaaj k siddhanto ki ya bauddhik varg ki...??
और इस कोशिश से
ये बेमानी हो गया है की
मैं क्या हूँ ?
-- agar meri soch ki hisab se samaaj k siddhanto ki baat kar rahi hai to..aap apne aap ko u low estimated kyu kar rahii hai..aapka yani her insan ka apna vazood hai..use samaaj k tez chaal k saath apne aap ko kho nahi dena chaahiye..khud ko samaaj ki tez chaal k aage drid kar k apne vazood ko mazbuti deni chaahiye..
तुम ख़ुद को व्यावसायिक कहते हो
मात्र हाथ की सफाई को
ज़िन्दगी कहते हो
- yaha uper ki saari baat in teen lines se hat ker likhi mehsoos hoti hai. kahi.n koi apas me judaav nazer nahi aata..lekin ek acchha aur teekha prahaar hai us vyevsaayik per...
और उस दर्शन से
यह सोचना बेमानी हो गया है
कि ज़िन्दगी क्या है.
aur is darshan k sath is hath ki safayi k saath hi aaj k tez gati se chalne wale samaaj k saath zindgi chalana jarurt hai waqt ki..
बहुत खूबसूरत रचना संगीता जी....
सादर...
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