भेद- अभेद
>> Monday, August 25, 2008
हैं दोनों भेद - रहित
फिर भी देखो कितना अन्तर है
एक मन मन्दिर में वास रहा
दूजा सड़कों का पत्थर है ।
तूने चाहा फूलों की महक को
मैंने काँटों को अपनाया है
तूने खुशियों की रंगीनी देखी
मैंने अश्कों के लिए -
सूना दामन फैलाया है ।
तूने दूधिया स्नात चाँदनी में
अपना प्यार लुटाया है
मैंने अमावस की रातों में
हर दर्द को दफनाया है ।
तूने खुशी की चाहत में
दूसरे का दर्द नही देखा
मैंने तेरे दर्द के लिए
हर खुशी को ठुकराया है।
तूने शीशे के महलों से
इस दुनिया को देखा है
मैंने ठोकर खा - खा कर
इस दुनिया को अपनाया है।
है तेरी ज़िन्दगी बसंत ऋतू
हर खुशी का फूल खिल जाएगा
मेरी ज़िन्दगी है पतझर
जिसमें हर पत्ता गिर जाएगा ।
है दोनों भेद - रहित
फिर भी देखो कितना अन्तर है
एक मन मन्दिर में वास रहा
दूजा सडकों का पत्थर है.
4 comments:
है दोनों भेद - रहित
फिर भी देखो कितना अन्तर है
एक मन मन्दिर में वास रहा
दूजा सडकों का पत्थर है.
संगीता जी, बहुत सुंदर रचना है! शायद इसी भेद के लिए मीराबाई ने कहा है - "करम की गति न्यारी संतों!"
ji bahot khubsurat blog hai............
aor ye kavitaa bhi.........
pahle shafaq me bhi padha tha ise.......
है दोनों भेद - रहित
फिर भी देखो कितना अन्तर है
एक मन मन्दिर में वास रहा
दूजा सडकों का पत्थर है.
ye khayaal bahot puraana hai
par puri nazm me samaa kar nayaa ho gaya hai......
salaam..........
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा मंगलवार (06-08-2013) के "हकीकत से सामना" (मंगवारीय चर्चा-अंकः1329) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदयस्पर्शी ....बहुत सुंदर रचना
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