क्षणिकाएँ (ज़िंदगी पर)
>> Saturday, August 16, 2008
ज़िंदगी,
क्या एक सुलगती माचिस नही
जो कुछ क्षण सुलगी
और फिर बुझ गयी।
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ज़िंदगी,
एक ऐसी पहेली
जिसका हल ढूंढते- ढूंढते ही
ख़तम हो जाती है
पर -
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ज़िन्दगी
शराब का जाम है
जो छलक कर
कुछ क्षणों में
खाली हो जाता है ।
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ज़िन्दगी
गम का दरिया है
जिसमें
चंद लम्हों के
सुख के लिए
इंसान डूब जाता है।
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ज़िन्दगी
दिन का शोर है
जो -
रात की खामोशी में
डूब जाता है।
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ज़िन्दगी
एक पेड़ है
जिस पर -
कभी बहार
तो कभी
पतझर है।
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ज़िन्दगी
गुलाब का पौधा है
जिसकी हर शाखा
काँटों से भरी हुई है
फिर भी -
एक गुलाब की खुशबू
हर टहनी में बसी हुई है
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