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क्षणिकाएँ (ज़िंदगी पर)

>> Saturday, August 16, 2008

ज़िंदगी,

क्या एक सुलगती माचिस नही

जो कुछ क्षण सुलगी

और फिर बुझ गयी।
* * * * * * * * * *


ज़िंदगी,

एक ऐसी पहेली

जिसका हल ढूंढते- ढूंढते ही

ख़तम हो जाती है

पर -

उत्तर नही मिलता।
* * * * * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
शराब का जाम है
जो छलक कर
कुछ क्षणों में
खाली हो जाता है ।
* * * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
गम का दरिया है
जिसमें
चंद लम्हों के
सुख के लिए
इंसान डूब जाता है।

* * * * * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी

दिन का शोर है
जो -
रात की खामोशी में
डूब जाता है।

* * * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
एक पेड़ है
जिस पर -
कभी बहार
तो कभी
पतझर है।

* * * * * * * * * * *

ज़िन्दगी
गुलाब का पौधा है
जिसकी हर शाखा
काँटों से भरी हुई है
फिर भी -
एक गुलाब की खुशबू
हर टहनी में बसी हुई है









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