सोचों की काली घटायें जब हो जाती हैं व्याकुल उमड़ती हैं, घुमड़ती हैं, गरजती हैं . और तब ज्ञान की बिजलियाँ चमकती हैं जोर से . फट पड़ता है मन का आसमां गिर पड़ता है औंधे मुंह ज़मीन पर .
फिर विक्षिप्त सा मन चाहता है शीतल बूंदों का आस्वादन ..... लेकिन गिर जाते हैं कुछ उष्ण कण .
कुछ विशेष नहीं है जो कुछ अपने बारे में बताऊँ...
मन के भावों को
कैसे सब तक पहुँचाऊँ
कुछ लिखूं या
फिर कुछ गाऊँ
।
चिंतन हो
जब किसी बात पर
और मन में
मंथन चलता हो
उन भावों को
लिख कर मैं
शब्दों में
तिरोहित कर जाऊं ।
सोच - विचारों की शक्ति
जब कुछ
उथल -पुथल सा
करती हो
उन भावों को
गढ़ कर मैं
अपनी बात
सुना जाऊँ
जो दिखता है
आस - पास
मन उससे
उद्वेलित होता है
उन भावों को
साक्ष्य रूप दे
मैं कविता सी
कह जाऊं.
2 comments:
फिर
विक्षिप्त सा मन
चाहता है
शीतल बूंदों का
आस्वादन .....
लेकिन
गिर जाते हैं
कुछ
उष्ण कण ....
MAN KE JAJBAATON KO SHABDON MEIN BAAKHOOBI UTAARA HAI AAPNE .... SUNDAR RACHNA
Adarniiya Sangeeta ji,
man ke bhavon aur antrdvnd ko apane is kavita men bahut sahaj roop men abhivyakt kiya hai.
shubhkamnayen.
Poonam
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