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दिग्भ्रमित

>> Thursday, September 10, 2009

संसार की मोह माया से

है हर प्राणी ग्रसित

इसीलिए रहता है

वो हर क्षण दिग्भ्रमित ।

छूटता नहीं है मोह कभी भी

स्वयं का स्वयं से

जूझता रहता है पल - पल

अपने अधूरेपन से

स्वार्थ को अंगीकार कर

वो जीना चाहता है

जीने का शायद उसे

यही सलीका आता है ।

भ्रम जाल से मुक्त हो

कब मुमुक्षु बनेगा

गरल और अमृत को कब

एक समान वरेगा ?

गर हुआ ऐसा कभी तो

भ्रमित इच्छाएं ध्वस्त होंगी

और मंजिल को पाने की

सारी राहें प्रशस्त होंगी.

2 comments:

रश्मि प्रभा... 9/10/2009 11:45 PM  

bhramit ikshayen dhwast hon
raahen prashast ho
yah khwaahish rang laye

दिगम्बर नासवा 9/12/2009 1:34 AM  

KISI NA KISI MOH MEIN RAH KAR HI TO JEEVAN JIYA JA SAKTA HAI ... PAR APNE AAPSE JYAADA MIH NAHI HONA CHAHIYE ...
ACHHEE RACHNA HAI ....

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