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चिता से पहले

>> Tuesday, September 8, 2009


दिवस का अवसान हो
सांझ का हो आगमन
धूप की तपिश से
मिल जाती है राहत .

उम्र की सांझ हो
रात आने को हो
बेचैनियाँ बढा देती हैं
ज़िन्दगी की तपिश को.

इस पडाव पर आकर
रहती है चाहना केवल
थोड़े से प्यार और
थोड़े से मान की
खलने लगता है
मन को एकाकीपन
कमी हो जाती है
संगी और साथियों की ..

बूढा मन
याद करता है
बीते क्षण
ढूंढता रहता है कहीं
अपना ही बचपन .

पर -
वक़्त की कमी है
या फिर
बदल गया है परिवेश
सब व्यस्त हैं स्वयं में
या फिर
रखते हैं मन में द्वेष ,

क्यों होता है ऐसा
न जाने क्यों हो रहा है
हर इंसान
चिता से पहले
चिंता में झुलस रहा है......

2 comments:

रश्मि प्रभा... 9/08/2009 2:22 PM  

swa ke prati insaan simat gaya hai, apni khushi,apni prasidhi,apne waqt ke siwa baki sab use bekar lagta hai......hum to prashn bhi kar lete hain,uske aage to bas dhuaan hi dhuaan rah jayega !

दिगम्बर नासवा 9/08/2009 11:15 PM  

बूढा मन
याद करता है
बीते क्षण
ढूंढता रहता है कहीं
अपना ही बचपन .......

AAJ KAL KE VYASY JEEVAN KI YE TRAADADI HO GAYEE HAI ...... KISI KE PAAS SAMAY NAHI HAI BOODE LOGON KE LIYE AUR UNKE PAAR BAS SOCH KE SIVA KUC BAAKI NAHI RAHTA .....

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