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तृष्णा की आंच

>> Tuesday, October 27, 2009



यादों के रेगिस्तान में

भटकता है मन यूँ ही

कि जैसे

कस्तूरी की चाह में

भटकता है कस्तूरी मृग

जंगल - जंगल ।


ख़्वाबों के तारे


छिप जातें हैं जब

निकलता है

हकीक़त का आफताब

और उसकी तपिश से

ख्वाहिशों का चाँद भी

नज़र नहीं आता ।


और इस मन का


पागलपन देखो

चाहता है कि

ख्वाहिशों को

हकीक़त बना दे

और

ख़्वाबों को आइना ।

पर ये आइना

टूट जाता है

छनाक से

चुभ जाती हैं किरचें

मन के हर कोने में

और सुलग जाता है मन

तृष्णा की आंच से .



चपला चंचला

>> Sunday, October 25, 2009


एक दिन अचानक

भीड़ के बीच

बस स्टाप पर

मेरी नज़र पड़ गयी थी

तुम पर

मुझे लगा कि

बहुत देर से

टकटकी लगा कर

देख रहे थे तुम ।

तभी बस आई

और भीड़ के साथ

मैं भी सवार हो गयी थी

बस में ।

पर तुम

किंकर्तव्यमूढ़ से

खड़े रह गए थे ।

और ये सिलसिला

रोज़ का ही

हो गया था शुरू।


मैं

अपनी सहेलियों के साथ

हंसती थी , खिलखिलाती थी

मद मस्त हुई जाती थी ।

और कुछ जान बुझ कर भी

अदा दिखाती थी ।

और एक नज़र भर

देख कर

चली जाती थी।

तुम रह जाते थे

खड़े वहीँ के वहीँ।


और एक दिन

तुम

मेरे करीब से गुज़रे

और धीरे से

कहा कान में

चपला चंचला ।

सुनते ही जैसे मैं

जड़ हो गयी थी ।


आज भी वही

बस स्टाप है

रोज़ मेरी नज़रें

तुम्हें खोजती हैं

और निराश हो

लौट आती हैं ।

अब मेरे साथ

न सहेलियां हैं

न हंसी है

न खिलखिलाहट है

न मस्ती है ।

बस

है तो

बस एक ख्वाहिश

कि

एक बार फिर से

सुन सकूँ तुमसे

चपला चंचला

मोहब्बत

>> Friday, October 23, 2009


मैंने तुमसे

मोहब्बत की है

बेपनाह मोहब्बत की है ।

इसीलिए

कभी तुमसे

कुछ माँगा नहीं

सुना है मैंने

कि

मोहब्बत में

पाने से ज्यादा

देने की चाहत होती है

इसीलिए

कभी तेरे सामने

मैंने अपना हाथ

फैलाया नहीं।

और वैसे भी

भला मैं तुझे

क्या दूंगी ?

ये आंसू के

कुछ कतरे हैं

जिन्हें तेरे

चरणों पर रख दूंगी ।

सच में मैंने तुझसे

मोहब्बत की है

ऐ मेरे खुदा

बेपनाह मोहब्बत की है.

दीपावली मनाएंगे

>> Sunday, October 18, 2009


लौटे थे राम

वनवास से

इसलिए हम

दीपावली मनाएंगे

और अपने

अंतस के राम को

वनवास दे आयेंगे ।


बिजली से चमकते

अपने घर में

और दिए जलाएंगे

पर किसी गरीब की

अँधेरी कोठरी में

एक दिया भी

नहीं रख पायेंगे ।


जिनके भरे हों

पेट पहले से

उन्हें और

मिष्टान्न खिलाएंगे

लेकिन भूखे पेट

किसी को हम

भोजन नहीं कराएँगे


पटाखे चलाएंगे

फुलझडी छुटायेंगे

और इसी तरह से

हर साल दीपावली मनाएंगे ।

निर्वाण

>> Thursday, October 15, 2009


मृत्यु पर आरूढ़ हो

सोचता है इन्सान कि

शायद जीवन से उसको

मिल गया है निर्वाण ।


पर ये शब्द भी

आरूढ़ हो चुका है

एक अर्थ के लिए

प्राप्त नहीं होता

सबको निर्वाण


जब छूट जाती हैं साँसें

और तन हो जता है जड़

उस अवस्था को केवल

कह सकते हैं देहावसान ।


जो मनुष्य होता है मुक्त

काम , क्रोध , लोभ ,से

उसे ही मिल जाता है

जीते जी निर्वाण ।

नन्हा पौधा

>> Wednesday, October 14, 2009


जिस तरह

नन्हे पौधे को

रोप कर

हवा ,रोशनी के बिना

यदि केवल सींचा जाये

तो सड़ जाता है


उसी तरह

प्यार का पौधा भी

रोशनी और

बाहरी हवा के बिना

मात्र नेह के जल से

मर जाता है

कृत्रिमता

>> Saturday, October 10, 2009

ज़िन्दगी है

कृत्रिम सी

और

कृत्रिम से ही

रिश्ते हैं

जानते हैं लोग

एक दूसरे को
पर

पहचानते नहीं हैं ।



इस जानने और

पहचानने के

बीच की दूरी ही

पैदा कर देती है

कृत्रिमता ।


पुराने रिश्तों में


खड़ी हो जाती है

दीवार

जब होता है शुरू

सिलसिला

पहचानने का ।


नए रिश्ते बन नहीं पाते


पुरानों के खँडहर पर

और हम

कृत्रिमता को ओढे हुए

बेमानी सी ज़िन्दगी

ढोते रहते हैं उम्र भर ।

उत्सव

>> Friday, October 9, 2009


तुमसे ये कहना तो

बेमानी है

कि

राह तकते तकते

मेरी आँखें पथरा गयी हैं।

इनकी तपिश से

मेरे घर के

सामने की सड़क भी

कुछ पिघल सी गयी है

मौसम कुछ

बदल सा गया है ।

हवाएं शुष्क

हो चली है

और चल रही है

ठंडी बयार

पर मन में आँधियाँ हैं

और उठ रहा है

गुबार ।

साँसों के धधकने से

जैसे धुआं सा उठ रहा है ।

पर सच मानो

तुमसे कोई शिकवा नहीं है ।

आज मैं तर्पक

बन गयी हूँ

और कर दिया है

तर्पण मैंने

अपने रिश्ते का ।

आज उसी रिश्ते का

श्राद्ध है

इस उत्सव में

तुम ज़रूर आना..

दिवस का अवसान

>> Thursday, October 8, 2009




भोर का कुछ यूँ आगमन हुआ

रवि रश्मि - रथ पर सवार हुआ

कर रहा था

अपने तेज से प्रहार

तारावली छिप गयी

और रजनीकर भी

गया था हार ।

दिनकर के आते ही

महक उठा

चमन - चमन

प्रफुल्लित हो गया

सारा वातावरण ।

कलरव से गुंजरित थीं

चहुँ दिशाएं

धरती के जीवन में

अंकुरित थीं

नयी आशाएं।

त्रण- त्रण पर

सोना बरस रहा था

पात - पात पर

चांदी थी

प्रकृति की सारी चीजें

जैसे सूरज ने

चमका दी थीं।

कर्मठ

छोड़ चुके थे आलस

निशा की

निद्रा त्याग चुके थे

हर चेतन में

अब जीवन था

सब अपने कार्यों में

क्रियान्वित थे ।

जैसे जैसे रथ बढ़ता था

प्रचंड धूप सताती थी

पर रवि की सवारी तो

आगे ही बढ़ती जाती थी।

फिर हुआ सिंदूरी आसमां

दिवाकर ने किया प्रस्थान

चेतन के भी थक गए प्राण

यूँ हुआ दिवस का अवसान ।

अग्नि और ध्यान

>> Sunday, October 4, 2009




अग्नि
कर देती है
सब कचरे को भस्म ,
समाहित कर लेती है
खुद में
फिर भी
उसकी लौ
रहती है
उत्तुग .

ध्यान भी
कर देता है
मन के विकारों का
शमन
कर देता है
शांत मन .
बना देता है
शिरोमण.

हमारी वाणी

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