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अक्स विहीन आईना

>> Monday, December 3, 2012




आज उतार लायी हूँ 
अपनी भावनाओं की पोटली 
मन की दुछत्ती से 
बहुत दिन हुये 
जिन्हें बेकार समझ 
पोटली बना कर 
डाल दिया था 
किसी कोने में ,
आज थोड़ी फुर्सत थी 
तो खंगाल रही थी ,
कुछ संवेदनाओं का 
कूड़ा - कचरा ,
एक तरफ पड़ा था 
मोह - माया का जाल , 
इन्हीं  सबमें  खुद को , 
हलकान करती हुई 
ज़िंदगी को दुरूह 
बनाती जा रही हूँ । 
आज मैंने झाड दिया है 
इन सबको  
और बटोर कर 
फेंक आई हूँ बाहर , 
मेरे  मन का घर 
चमक रहा है 
आईने की तरह , लेकिन 
अब  इस आईने में 
कोई अक्स नहीं दिखता । 



खनकते सिक्के

>> Thursday, November 8, 2012




नारी और पुरुष को 
एक  ही सिक्के के 
दो पहलू  माना है 
पुरुष को हैड और 
स्त्री को टेल  जाना है 

पुरुष के दंभ ने 
कब नारी का मौन 
स्वीकारा  है 
उसके अहं के आगे 
नारी का अहं हारा है ।

पुरुष ने 
हर रिश्ते को 
अपने ही तराजू पर 
तोला  है , 
जबकि 
नारी ने हर रिश्ता 
मिश्री सा घोला है । 

पुरुष  अपने चारों ओर 
एक वृत बना 
घूमता रहता है 
उसके अंदर ,
नारी धुरी बन 
एक बूंद को भी 
बना देती है समंदर । 

सच ही  
नारी और पुरुष 
एक ही सिक्के के 
दो पहलू लगते हैं 
जो सिक्के की तरह ही 
पीठ जोड़े 
अपने अपने 
आसमां में खनकते  हैं । 


झील सी होती हैं स्त्रियाँ

>> Tuesday, October 23, 2012

वाणी गीत    की दो रचनाएँ पढ़ीं थीं झीलें हैं कि गाती मुसकुराती स्त्रियाँ   और झील होना भी एक त्रासदी है ... और यह झील मन को बहुत भायी ....... झील का ही उपमान ले कर एक रचना यहाँ भी पढ़िये ....


झील सी 
होती हैं स्त्रियाँ 
लबालब  भरी हुई 
संवेदनाओं से 
चारों ओर के किनारों से 
बंधक सी बनी हुई 
सिहरन तो होती है 
भावनाओं की लहरों में
जब मंद समीर 
करता है स्पर्श 
पर नहीं आता कोई 
ज्वार - भाटा
हर तूफान को 
समां  लेती हैं 
अपनी ही गहराई में 
झील सी होती हैं स्त्रियाँ  

किनारे तोड़  
बहना नहीं जानतीं 
स्थिर सी गति से 
उतरती जाती हैं 
अपने आप में
ऊपर से शांत 
अंदर से उदद्वेलित 
झील सी होती हैं स्त्रियाँ । 

झील का विस्तार 
नहीं दिखा पाता 
गहराई उसकी 
इसीलिए 
नहीं उतर पाता 
हर कोई इसमें 
कुशल तैराक ही 
तैर सकता है 
गहन , शांत , 
गंभीर झील में
झील सी होती हैं स्त्रियाँ । 






अधूरा उपवन

>> Wednesday, October 10, 2012




मन के आँगन में
तुमने अपनी ही 
परिभाषाओं के 
खींच दिये हैं 
कंटीले तार
और फिर 
करते हो इंतज़ार 
कि , 
भर जाये आँगन 
फूलों से .

हाँ , होती है 
हरियाली 
पनपती है 
वल्लरी 
पत्ते भी सघन 
होते हैं 
पर फूल 
नहीं खिलते हैं । 

क्या तुमको 
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन 
अधूरा  रह जाता है 
और खुशियों का आकाश 
हाथ नहीं आता है । 



अनोखी शब्दावली

>> Friday, September 21, 2012


शब्दों का अकूत भंडार 
न जाने कहाँ तिरोहित हो गया 
नन्हें से अक्षत के शब्दों पर 
मेरा मन तो मोहित हो गया । 

बस  को केवल " ब "  बोलता 
साथ बोलता कूल 
कहना चाहता है  जैसे 
बस से जाएगा स्कूल । 

मार्केट  जाने को गर कह दो 
पाकेट - पाकेट कह शोर मचाता 
झट दौड़ कर कमरे से फिर 
अपनी  सैंडिल  ले आता . 

घोड़ा  को वो घोआ  कहता 
भालू  को कहता है भाऊ 
भिण्डी  को कहता है बिन्दी
आलू को कहता वो आऊ । 

बाबा की तो माला जपता 
हर पल कहता बाबा - बाबा 
खिल खिल कर जब हँसता है 
तो दिखता जैसे काशी -  काबा । 

जूस  को कहता है जूउउ 
पानी को कहता है पायी 
दादी नहीं कहा जाता  है 
कहता काक्की  आई । 

छुक - छुक को वो तुक- तुक कहता 
बॉल  को कहता है बो 
शब्दों के पहले अक्षर से ही 
बस काम चला लेता है वो । 

भूल गयी हूँ कविता लिखना 
बस उसकी भाषा सुनती हूँ 
एक अक्षर की शब्दावली को 
मन ही मन मैं गुनती हूँ । 


होड़.......

>> Thursday, September 13, 2012




पैसे की चमक ने 
चौंधिया दी हैं 
सबकी आँखें 
और हो गए हैं 
लोंग अंधे 
अंधे - आँख से नहीं 
दिमाग से 
पैसे की अथाह चाह ही 
राहें खोलती है 
भ्रष्टाचार  की 
काले बाज़ार की 
अपराध की 
पर क्या 
एक पल भी उनका 
बीतता है सुकूं से 
जो पैसे को 
भगवान बनाये बैठे हैं ? 

जितना कमाते हैं 
उससे ज्यादा पाने की 
लालसा में 
भूल गए हैं 
परिवार के प्रति दायित्व 
इसी लिए नहीं रहा 
संस्कारों में स्थायित्व 
दौड रहे हैं सब 
एक ही दिशा में  बस 
राहें  कोई भी हों 
कैसी भी हों 
मंजिल तक पहुंचना चाहिए 
किसी भी रास्ते बस 
पैसा आना चाहिए 

हो रहें हैं 
खत्म सारे रिश्ते 
भावनाएं मर चुकी हैं 
दिखावे की होड़ में 
संवेदनाएं ढह चुकी हैं 
भूल चुके हैं हम 
नीतिपरक कथ्यों को 
जो मन के द्वार खोलता है 
आज बस सबके  सिर 
पैसा चढ कर बोलता है 
जानते हैं  सब कि
नश्वर  है यह जहाँ 
जाते हुए सब कुछ 
रह जाएगा यहाँ 

फिर भी बाँध कर 
पट्टी अपनी आँखों पर 
भाग रहे हैं 
बस भाग रहे हैं 
सो रहे हैं मन से 
पर कहते हैं कि 
हम जाग रह हैं 
जब नींद खुलेगी तब 
मन बहुत पछतायेगा 
व्यर्थ हुआ सारा जीवन 
हाथ नहीं कुछ आएगा ...


उम्र यूं ही तमाम होती है

>> Monday, August 27, 2012




विलुप्त  हैं कहीं 
मेरी सारी भावनाएं ,
न किसी बात से 
मिलती है खुशी 
और न ही 
होता है गम ,
मन के समंदर में
न कोई लहर 
उठती है ,
और न ही 
होती हैं  आँखें नम ,
लगता तो है कि
पलकों पर 
बादलों ने डाला है 
डेरा गहन ,
लेकिन 
न जाने क्यों 
महसूस होती है 
बेहद थकन ,
शिथिल  सी ज़िंदगी 
जैसे जीती चली जाती हूँ ,
अपने  अंतस में 
एक शून्य  रचाती हूँ ,
और अक्सर किसी का कहा 
गुनगुनाती हूँ ---

सुबह होती है , शाम होती है 
उम्र यूं ही ,तमाम होती है ॥ 



काफी है ......

>> Saturday, August 4, 2012


तम हो घनेरा 
और जाना हो 
मंज़िल तक 
तो जुगनू  का 
एक दिया ही 
काफी है 
मंज़िल पाने को 
तपिश हो मन की 
और चाहते हो ठंडक 
तो अश्क  का 
एक कतरा ही 
काफी है 
अदना सा झोंका ही 
भर देता है 
प्राणवायु 
जीवित रहने के लिए 
एक सांस ही 
काफी है , 
भले ही हो 
अस्फुट सा स्वर 
पर है वो 
प्रेमसिक्त 
मन में सिंचित 
कटुता को 
धो डालने के लिए 
काफी है , 
मुँदी हुई पलकें 
आभास देती हों 
निष्प्राण देह का 
उसमें स्पंदन के लिए 
गहन मौन ही 
काफी है ...




खिल उठे पलाश / पुस्तक परिचय / सारिका मुकेश

>> Thursday, August 2, 2012


गर्भनाल पत्रिका के अगस्त  अंक में  प्रकाशित  पुस्तक परिचय  --- 
खिल उठे पलाश 


" खिल उठे  पलाश "   काव्य संग्रह है  कवयित्रि सारिका मुकेश जी का जो इस समय वी॰ आई॰ टी॰ यूनिवर्सिटी  वैल्लोर ( तमिलनाडु) में अँग्रेजी  की असिस्टेंट प्रोफेसर ( सीनियर ) के रूप में कार्य रात हैं . इससे पहले भी इनके दो काव्य संग्रह पानी पर लकीरें और एक किरण उजाला प्रकाशित हो चुके हैं । कवयित्रि के विचारों की एक झलक मिलती है जो उन्होने अपनी पुस्तक की भूमिका में कही है -
 वैश्वीकरण ने भारत को दो हिस्सों में बाँट  दिया है --एक जो पूरी तरह से वैश्वीकरण  का आर्थिक लाभ ( ईमानदारी से ,भ्रष्टाचार  से या फिर दोनों से ) उठा कर अमीर बन चुका है ; जिसे हम शाइनिंग  इंडिया  के नाम से जानते हैं  और दूसरा  जहां वैश्वी करण  की आर्थिक वर्षा की एक - दो छींट ही पहुँच सकी हैं और जो भारत ही बन कर रह गया है ... 
मन के दरवाजे पर  संवेदनाओं की  आहटें  ही कविता को विस्तार देती हैं  जिनमें जीवन की धड़कनें  समाहित होती हैं
सच ही इस पुस्तक की संवेदनाओं ने  मन के दरवाजे पर  ज़बरदस्त  दस्तक दी है ..... यूं तो हर रचना अपने आप में मुकम्मल  है  लेकिन जिन रचनाओं ने  मन पर विशेष प्रभाव छोड़ा है वो हैं --
मिलन --- जहां वृक्ष  लता को एक दृढ़  सहारा देने को दृढ़ निश्चयी है  जैसे कह रहा हो  मैं हूँ न । 
फिर जन्मी लता / पली और बढ़ी / और फिर एक दिन /लिपट गयी वृक्ष से / औ वृक्ष भी / कुछ झुक गया / करने को आलिंगन / लता का /

सामाजिक सरोकारों को उकेरती कुछ कवितायें एक प्रश्न छोड़ जाती हैं जो मन को मथते रहते हैं ---
तुमने देखा है कभी / कोई आठ साल का लड़का .....सीने में गिनती करती पसलियाँ ...
आज वक़्त बदल  रहा है .... लड़कियां भी कदम दर कदम  आगे बढ़ रही हैं –
प्रतियोगिता के स्वर्णिम सपनों को आँखों में लिए / कठोर परिश्रम कर  डिग्री पा कर / अपने मुकाम को पाने हेतु /
मनुष्य  को जो आपस में बांटना चाहिए उससे विमुख हो  कर धरती , आकाश यहाँ तक कि हवा पानी भी बांटने को तत्पर है । 
वर्जीनिया वुल्फ़ --- यह ऐसी रचना है जिसमे लेखिका के पूरे जीवन को ही उकेर कर रख दिया है ।

शब्दों का फेर  / नयी सदी का युवा ..... यह वो रचनाएँ हैं जो हंसी का पुट लिए हुये गहरा कटाक्ष करती प्रतीत होती हैं ।
एक हादसा /सफलता के पीछे वाला व्यक्ति / आधुनिकता का असर / दिल्ली में सफर करते हुये .... यह ऐसी कवितायें हैं जो सोचने पर मजबूर कर देती हैं .... आज इंसान की  फित्रत बदल रही है .... 
तुम पर ही नहीं पड़े निशान --- यह नन्ही नज़्म  बस महसूस करने की है  कुछ लिखना बेमानी है इस पर । 

और अंतिम पृष्ठ तो गजब  ही लिखा है एक सार्थक संदेश देते हुये .... मृत्यु जन्म से पहले नहीं घटती ... बहुत सुंदर

इस तरह इस पुस्तक के माध्यम से मैंने बीज से वृक्ष  तक का सफर किया ...... हर कविता को महसूस किया .... और क्यों कि  कविता निर्बाध गति से एक आँगन से दूसरे आँगन तक बहती है तो  मैं भी इसमें बही ..... पाठक भी नि: संदेह इस पुस्तक से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे । पुस्तक की साज सज्जा और आवरण बेहतरीन है ।  रचनाकार को मेरी हार्दिक शुभकामनायें ।

पुस्तक का नाम ----    खिल उठे पलाश 
ISBN ------              978-8188464-49-4
मूल्य   ----------          150 /
प्रकाशक   ---            जाह्नवी प्रकाशन , ए - 71 ,विवेक विहार ,फेज़ - 2 , 
दिल्ली - 110095
ब्लॉग --- http://sarikamukesh.blogspot.in/

उल्लसित धूप

>> Monday, July 16, 2012




तम  के  गहन  बादलों के बीच
आज निकली है 
हल्की सी उल्लसित धूप 
और मैंने  
अपनी सारी ख्वाहिशें 
डाल  दी हैं  
मन की अलगनी पर 
इन सीली सीली सी 
ख़्वाहिशों को 
कुछ हवा लगे 
और कुछ धूप
और  सीलन की महक 
हो सके दूर  
साँझ  होने से पहले ही 
सहेज लूँगी  इनको 
और डाल  दूँगी इनके साथ 
वक़्त के नेपथलीन बॉल्स
जो शिथिलता  और 
विरक्ति के कीड़े  को 
फिर लगने नहीं देंगे  ।



बूंद बूंद रिसती ज़िंदगी

>> Wednesday, July 11, 2012





ज़िंदगी की उलझने 
जब बन जाती हैं सवाल 
तो उत्तर की प्रतीक्षा में
अल्फ़ाज़ों में  ढला करती हैं 
उतर आती हैं अक्सर 
मन के कागज पर 
जो अश्कों  की स्याही से 
रचा करती हैं 
पढ़ने वाले  भी बस 
पढ़ते हैं शब्दों को 
उनको भी पड़ी लकीरें 
नहीं दिखती हैं 
लकीरों की भाषा भी 
समझना आसान नहीं 
वो तो बस 
आड़ी तिरछी ही 
दिखा करती हैं 
मन होता है तिक्त 
अपनेपन से 
हो जाता है  रिक्त 
मित्र भी करते हैं  कटाक्ष 
थक हार कर 
बंद कर लिए जाते हैं  गवाक्ष 
घुट कर रह जाती हैं  जैसे सांसें 
और ---
बूंद बूंद रिसती है ज़िंदगी 



जिद्दी सिलवटें

>> Wednesday, June 27, 2012


Folds : Luxurious white satin/silk folded fabric, useful for backgrounds



मन की चादर पर 
वक़्त ने डाली हैं 
न जाने कितनी सिलवटें 
उनको सीधा करते - करते 
अनुभवों का पानी भी 
सूख गया है 
प्रयास की 
इस्तरी  ( प्रेस )  करने से भी 
नहीं निकलतीं ये 
और कुछ  अजीब से 
दाग  रह जाते हैं पानी के 
कितना ही धोना चाहो 
धब्बे हैं कि 
बेरंग हो कर भी 
छूटते नहीं 
काश --
मन की चादर के लिए भी 
कोई ब्लीच होता ।




अनुभूति .... / पुस्तक परिचय / अनुपमा त्रिपाठी

>> Monday, June 25, 2012



कुछ समय पूर्व  मुंबई प्रवास के दौरान अनुपमा त्रिपाठी जी से मिलने का मौका मिला ।उन्होने मुझे अपनी दो पुस्तकें  प्रेम सहित भेंट कीं । जिसमें से एक तो साझा काव्य संग्रह है –“ एक सांस मेरी “ जिसका  सम्पादन सुश्री  रश्मि प्रभा  और श्री  यशवंत माथुर ने किया है ...इस पुस्तक के बारे में  फिर कभी .....

आज मैं आपके समक्ष लायी हूँ अनुपमा जी  की पुस्तक अनुभूति का परिचय । अनुभूति से पहले थोड़ा सा परिचय अनुपमा जी का ... उनके ही शब्दों में --- ज़िंदगी में समय से वो सब मिला जिसकी हर स्त्री को तमन्ना रहती है.... माता- पिता की दी हुयी शिक्षा , संस्कार  और अब मेरे पति द्वारा दिया जा रहा वो सुंदर , संरक्षित जीवन जिसमें वो एक स्तम्भ की तरह हमेशा साथ रहते हैं .... दो बेटों की माँ  हूँ और अपनी घर गृहस्थी में लीन .... माँ संस्कृत की ज्ञाता थीं उन्हीं की हिन्दी साहित्य की पुस्तकें पढ़ते पढ़ते हिन्दी साहित्य का बीज हृदय में रोपित हुआ  और प्रस्फुटित हो पल्लवित हो रहा है ... “

साहित्य के अतिरिक्त इनकी रुचि गीत संगीत और नृत्य  में भी है । इन्होने शास्त्रीय संगीत और सितार की शिक्षा ली है । श्रीमती सुंदरी शेषाद्रि से भारतनाट्यम सीखा । युव वाणी : आल इंडिया रेडियो और जबलपुर आकाशवाणी से भी जुड़ी । 2010  में मलेशिया  के टेम्पल  ऑफ फाइन आर्ट्स  में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी दी .... आज भी नियमित शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम  देती रहती हैं .....
इनकी रचनाएँ पत्रिकाओं में भी स्थान पा चुकी हैं ....

अनुभूति पढ़ते हुये अनुभव हुआ कि अनुपमा जी जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण  रखती हैं  .....   अपनी बात में वो लिखती हैं ---

जाग गयी चेतना
अब मैं देख रही प्रभु लीला
प्रभु लीला क्या , जीवन लीला
जीवन है संघर्ष तभी तो
जीवन का ये महाभारत
युद्ध के रथ पर
मैं अर्जुन तुम सारथी मेरे
मार्ग दिखाना
मृगमरीचिका नहीं
मुझे है जल तक जाना ।

इस पुस्तक में उनकी कुल 38 कवितायें प्रकाशित हैं .... सुश्री रश्मि प्रभा जी ने अनुपमा जी की पुस्तक के लिए शुभकामनायें प्रेषित करते हुये लिखा है --- " पल पल साँसों के क्रम में हम कभी इस देहरी से उस देहरी , इस चाहत से उस चाहत गुज़रते हैं - कभी होती हैं आँखें नम, कभी एक मुस्कान पूर्णता बन जाती है । भिन्न भिन्न रास्तों  से  भिन्न भिन्न अस्तित्व । रचनाओं की बारीकी कहती है कि अनुपमा जी ने इस अस्तित्व को जीवंत किया है । "
सभी कवितायें पढ़ कर एक सुखद एहसास हुआ कि  कहीं भी कवयित्रि के मन में नैराश्य  का भाव नहीं है .... हर रचना में जीवन  में आगे बढ़ने की ललक और परिस्थितियों  से संघर्ष करने का उत्साह दिखाई देता है

मंद मंद था हवा का झोंका
हल्की सी थी तपिश रवि की
वही दिया था मन का मेरा
जलता जाता
जीवन ज्योति जलाती जाती
चलती जाती धुन में अपनी
गाती जाती बढ़ती जाती ।

कवयित्री  क्यों कि  संगीत से बेहद जुड़ी हुई हैं तो बहुत सी कविताओं में विभिन्न रागों का ज़िक्र भी आया है ... राग के नाम के साथ जिस समय के राग हैं उसी समय को भी परिलक्षित किया है ..... कहीं कहीं रचना में शब्द ही संगीत की झंकार सुनाते प्रतीत होते हैं ---

जंगल में मंगल हो कैसे
गीत सुरीला संग हो जैसे
धुन अपनी ही राग जो गाये
संग झाँझर झंकार सुनाये
सुन सुन विहग भी बीन बजाए
घिर घिर  बादल रस बरसाए
टिपिर टिपिर सुर ताल मिलाये ।

ईश्वर के प्रति गहन आस्था इनकी  रचनाओं में देखने को मिलती है ---

प्रभु मूरत बिन /चैन न आवत /सोवत खोवत / रैन गंवावत /
या ---
बंसी धुन मन मोह लयी /सुध बुध मोरी बिसर गयी /
या
प्रभु प्रदत्त / लालित्य से भरा ये रूप / बंद कली में मन ईश स्वरूप ।

कहीं कहीं कवयित्रि आत्ममंथन करती हुई दर्शनिकता का बोध भी कराती है

जीवन है तो चलना है / जग चार दिनों का मेला है / इक  रोज़ यहाँ ,इक रोज़ वहाँ / हाँ ये ही रैन बसेरा है ।
सामाजिक सरोकारों को भी नहीं भूली हैं । प्रकृति प्रदत्त रचनाओं का भी समावेश है ---- आओ धरा  को स्वर्ग बनाएँ 

कविताओं की विशेषता है कि  पढ़ते पढ़ते जैसे मन खो जाता है और रचनाएँ आत्मसात सी होती जाती हैं .... कोई कोई रचनाएँ संगीत की सी तान छेड़ देती हैं लेकिन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जिनमे गेयता का अभाव है ... लेकिन मन के भावों को समक्ष रखने में पूर्णरूप से सक्षम है । पुस्तक का आवरण  पृष्ठ सुंदर है .... छपाई स्पष्ट है .... वर्तनी अशुद्धि भी कहीं कहीं दिखाई दी .... ब्लॉग पर लिखते हुये  ऐसी अशुद्धियाँ नज़रअंदाज़ कर दी जाती हैं  लेकिन पुस्तक में यह खटकती हैं .... प्रकाशक क्यों कि  हमारे ब्लॉगर साथी ही हैं  इस लिए उनसे विनम्र  अनुरोध है  इस ओर थोड़ी सतर्कता बरतें ।

कुल मिला कर यह पुस्तक पठनीय और सुखद अनुभूति देने वाली है .... कवयित्री को मेरी बधाई और शुभकामनायें ।


पुस्तक का नाम अनुभूति

रचना कार --     अनुपमा त्रिपाठी

पुस्तक का मूल्य – 99 / मात्र

आई  एस बी एन – 978-81-923276-4-8

प्रकाशक ज्योतिपर्व प्रकाशन / 99, ज्ञान खंड -3 इंदिरापुरम / गाजियाबाद – 201012










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