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ज़रूरी बनाम मजबूरी

>> Monday, September 15, 2008

इन्सान की ज़िन्दगी
सुख और दुःख से भरी
सुख क्षणिक मात्र
दुःख की अवधि बड़ी ।
हर इंसान अपने दुःख को बड़ा
और दूसरे के दुःख को
हल्का समझता है
उसके जितना कोई
व्यथित प्राणी नही
यही मान लेता है।
पर क्या तुमने कभी
ख़ुद से बाहर निकल कर देखा है ?
देखो --
ज़रा अपने नेत्र खोलो
अपने आस - पास दृष्टि दौडाओ
तुम पाओगे कि
दुःख तो चारों ओर फैला है।
तुम कहीं से लाचार नही हो
फिर भी लाचारी ओढ़ते हो
जो दुःख तुमने पाले हैं
उनके बीज भी ख़ुद ही बोते हो ।
और फिर अपने आंसुओं से
बीजों को सींचा भी करते हो
फल - फूल जाते हैं वो बीज
तो फिर और अधिक रोते हो ।

देखो -
उस बालक को
जिसके पाँव नही
पाँव के नीचे पटरी लगी है
हाथों से ठेल वो
अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी
खींच रहा है
और , लोगों के सामने
मुस्कुराता हुआ गीत गा रहा है
क्यों ?
क्यों की ये उसके लिए ज़रूरी है।

और तुम ,
हर तरह से भरे - पूरे
पूर्ण रूप से सक्षम
फिर भी दुःख का
जैसे अधिकार लिए
दुखी प्राणी बने
ख़ुद से जूझते हुए
व्यर्थ की चिन्त्ताओं से घिरे
ख़ुद को व्यथित करते हुए
तुमने यातनाओं को ओढ़ लिया है
क्यों ?
क्यों कि ये शायद तुम्हारी मजबूरी है .








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