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नारी ... एक शमा

>> Friday, September 26, 2008

मैं ,
शमा - दान की
अधजली शमा हूँ ।
जब अँधेरा होता है तो
जला ली जाती हूँ मैं
और उजेरा होते ही
एक फूँक से
बुझा दी जाती हूँ मैं
ओ ! रोशनी के दीवानों
क्या पाते हो ऐसे तुम
क्यों नही जलने देते पूरा
क्षण - क्षण
जला - बुझा कर तुम
मत यूँ बुझाओ मुझको
ज्यादा दर्द होता है
कि पिघलता हुआ मोम
ज्यादा गर्म होता है ।
पिघलने दो उसे
यूँ बुझा कर ठंडा न करो
जलते हुए मिलने वाले
उस सुख को न हरो
चाहती हूँ मैं कि
मुझे एक बार जला दो
कि उस आग को
भड़कने के लिए
बस थोडी सी हवा दो
मैं एक बार पूरी तरह
जलना चाहती हूँ
अपनी ज़िन्दगी इसी तरह
पूरी करना चाहती हूँ ।
मैं ,
हलकी सी फूँक का
बस एक तमाशा हूँ ।
मैं शमा - दान की
अधजली शमा हूँ.

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