ज़िम्मेदारी
>> Sunday, September 21, 2008
अक्सर मैं सोचती हूँ कि
दुनिया में कितने रंग हैं
अपने गम से बाहर निकलो तो
दुनिया में कितने गम हैं ।
कभी कभी बचपन बीतता भी नही
कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है
और कभी कभी कोई बुजुर्ग
बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है
ज़िन्दगी-
बहुत कुछ सिखाती है
ज़रूरत
इंसान को कभी कभी
जल्दी ही उम्र दराज़ कर जाती है ।
बचपन में ही ओढ़ लेते हैं
बड़ी - बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ
मासूम से कंधे झुक जाते हैं
समझ नहीं पाते दुनियादारी की सोच ।
उनके ख़ुद के रास्ते सब बंद हो जाते हैं
मेहनत के बदले चंद सिक्के ही मिल पाते हैं
जोड़ - तोड़ कर जैसे - तैसे परिवार चलाते हैं
किसी तरह वो ये ज़िन्दगी गुजारते हैं ।
एक मासूम सा किशोर
अचानक बड़ा हो जाता है
सबको खुशी देता है
जिनसे उसका नाता है ।
पर जब वक्त गुज़र जाता है
उम्र सच में ही ढलने लगती है
थक चुका होता है ज़िन्दगी से
तो नफे - नुक्सान की गणना होने लगती है
पाता है कि छला गया है वो
नाते - रिश्ते सब कहाँ चले गए हैं ?
गम के अंधेरों से जूझता रहा है हर पल
जो नक्शे - कदम बनाए थे वो कहाँ धुल गए हैं ?
वो नाते , वो रिश्ते
छोड़ जाते हैं सब साथ
जिनके लिए उसने अपना
लहू पसीना किया था
आज नितांत अकेला
पाता है ख़ुद को
वो कहाँ हैं सब
जिनके लिए वो जिया था ।
इल्तिजा है बस मेरी
इतनी ही खुदा से
यूँ मासूमों का
इम्तिहान न लिया कर
जो चाहते हैं सच ही
ख़ुद कुछ कर गुज़रना
उनको कुछ अपनी भी
ताकत दिया कर .
3 comments:
एक कडवी सच्चाई है जिसे झुठलाया नही जा सकता ……सुन्दर प्रस्तुति।
जो चाहते हैं सच ही
ख़ुद कुछ कर गुज़रना
उनको कुछ अपनी भी
ताकत दिया कर .
तथास्तु कह दे वह परमशक्ति... यह प्रार्थना तो अवश्य स्वीकार हो!
गहन भाव समेटे सार्थक व सटीक अभिव्यक्ति ।
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